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शनिवार, जुलाई 22, 2006

कुछ और गणितज्ञ

रत्ना जी ने कुछ दिनों पहले जिसे देखा जिसे इलाहाबाद-लखनऊ पथ पर और अपने चिठ्ठे पर तेजस्वी बच्चे का जिक्र किया जो सड़कों पर अपना "गियान" (ज्ञान) बेचता था, इस दिशा में और अध्ययन किया तो एसे कई और तेजस्वी दुनिया में हो चुके हैं। उनमें से कुछेक का जिक्र यहाँ करना चाहता हुँ।
कार्ल गाऊस:
मात्र तीन वर्ष की उम्र में अपने पिता के ईंट के भट्टे पर खेलते खेलते अपने ज्ञान का पर्चा देना शुरू कर दिया। जब गाऊस ठीक ढंग से बोलना भी नहीं जानते थे। पिता अपने मजदूरों को तनख्वाह देने के लिये जो सूची बना रखी थी उसे देख कर गाऊस बोले " Total is wrong- Total is wrong" पिता को आश्चर्य हुआ, उन्हे बालक को पूछा कहाँ ? तो गाऊस ने अपनी ऊंगली वहाँ रख दी जहां वाकई जोड़ में गलती थी। 19 वर्ष में " कार्ल गाऊस फ़्रेडरिक" ने गणित के कई सिद्धान्तों की खोज की और इन्ही गाऊस को हम उनके चुंबकीय खोज के अलावा चुंबकत्व को मापने की ईकाई "गाऊस" के रूप में भी जानते हैं।

जाकी ईनोदी:
रत्ना जी के बताये बच्चे की तरह ईटली के जाकी ईनोदी पशु चराते चराते एक बहुत बड़े गणितज्ञ बने थे, इनोदी अपने ज्ञान को उसी तरह प्रदर्शित किया करते थे जैसे वो नन्हा बालक करता है। फ़र्क यही है कि वो सड़कों पर करता है और इनोदी स्टेज पर करते थे। एक बार उन्होने 1,19,55,06,69,121 का वर्गमूल तो मात्र 23 सैकण्ड में ( 3,45,761) बता दिया था

जेडेडिया बक्स्टन:
अनपढ़, और निपत देहाती, लिखना और पढ़ना बिल्कुल नहीं जानने वाले बक्सटन खेती करते थे, परन्तु दिमाग इतना तेज की खेत में पैदल चल कर उसका क्षेत्रफ़ल सचोट बता देते थे, वैज्ञानिकों ने उनको एक बार आजमाया और बाद में एक नाटक दिखाने ले गये, नाटक के अंत मे बक्सटन ने बताया कि नाटक में कलाकार कितने शब्द बोले और कितने कदम चले, वैज्ञानिकों ने स्क्रिप्ट देखी तो पाया कि बक्सटन बिल्कुल सही थे।

भारतीय गणितज्ञ:

श्याम मराठे:
नाम के इस गणितज्ञ ने 24,24,29,00,77,05,53,98,19,41,87,46,78,26,84,86,96,67,25,193 हाश... इतनी लम्बी संख्या का 23वां वर्गमूल ( 57) कुछ ही मिनीट में बता दिया और वो भी मौखिक।

दिवेश शाह:

शकुन्तला देवी:
इन मानव कम्प्युटर महिला के बारे में बताने की आवश्यकता है?

श्रीनिवास रामानुजन आयंगर:
के बारे में भी कुछ लिखना जरूरी नहीं लगता, क्यों कि हर भारतीय इन्हें अच्छी तरह से जानते हैं।

इन के अलावा लम्बी सुची (लगभग 100 लोगों की)

सौजन्य: सफ़ारी

शुक्रवार, जुलाई 21, 2006

क्या भारत इसराइल बन सकता है?


आतंकवाद पर परिचर्चा में अनुनाद जी की एक टिप्पणी थी
Israel kee neeti well-researched neeti hai. Bhaarat me usake alaawaa kuCh kaam nahee karegaa. Kisee galatphahamee me mat raho.
और संजय बेंगानी जी की एक टिप्पणी थी भारत इज्राइल क्यों नहीं बन सकता?
मैने इसराईल के बारे में जितना कुछ पढ़ा है मुझे पता चला है कि इसराईल को विदेशों में रह रहे यहूदी अपने देश के लिये बहुत पैसा भेजते हैं, और इसराईल में रह रहे यहूदियों का देश के लिये रक्षा फ़ंड मे वार्षिक १००० डॉलर हिस्सा होता है, यानि लगभग ४,८०,००,००,००० डॉलर(एकाद बिन्दी कम ज्यादा हो तो जोड़ लें) अब भारत का क्षेत्रफ़ल इसराईल से लगभग १५८ गुना ज्यादा है, और रक्षा बजट मात्र २.५ गुना क्या ऐसे में संभव है कि हम इसराईल की तरह आक्रामक हों जायें? क्या भारत की आर्थिक स्थिती इतनी समृद्ध है कि हम बार बार युद्ध कर सकें।
पैसा तो भारत को भारतीय एन आर आई भी बहुत भेजते है परन्तु वह देश के रक्षा कोष की बजाय़ मंदिरों, मदरसों और गिरजाघरों की दीवारें बनाने में ही खर्च हो जाता है। मुझे भी इसराईल के प्रति बहुत आकर्षण है, अन्याय के विरुद्ध लड़ने का उनका तरीका जबरदस्त है परन्तु जिस दिन सुनील जी का यह चिठ्ठा पढा़ मन सोचने को मजबूर हो गया। क्या सही है क्या गलत मन इसी उधेड़बुन में है।
सुनील जी ने अपने इस चिठ्ठे में बहुत अच्छा लिखा है कि "मैं मानता हूँ कि केवल बातचीत से, समझोते से ही समस्याएँ हल हो सकती हैं, युद्ध से, बमों से नहीं. अगर एक आँख के बदले दो आँखें लेने की नीति चलेगी तो एक दिन सारा संसार अँधा हो जायेगा"

गुरुवार, जुलाई 13, 2006

अनुगूँज- चुटुकुले-२

Akshargram Anugunj

गब्बर की धमकी से डर कर चुटुकुलों की अगली कड़ी प्रस्तुत है।
एक छोटे बच्चे से शिक्षिका ने पूछा " क्यों टिंकू तुम दो दिन स्कूल क्यों नहीं आये ?
टीचर वो क्या है कि मेरे पास एक ही ड्रेस है और वो परसों मम्मी ने धोकर सुखाई थी तो मैं स्कूल कैसे आता ? पूरे दिन बिना कपड़ों के घर पर रहना पड़ा।
अच्छा फ़िर कल क्यों नहीं आये ?
कल मैं आ रहा था टीचर पर जब मैं आपके घर के बाहर से निकला तो देखा कि आपके कपड़े भी सूख रहे थे।

*****

एक बार एक वैज्ञानिक ने एसे कम्प्युटर का अविष्कार किया जो सब कुछ बता सकता था
एक आदमी ने सवाल किया मेरे पिताजी अभी कहाँ है ?
कम्प्युटर ने जवाब दिया अभी वे कलकत्ते के एक बार में शराब पी रहे हैं
आदमी ने कहा गलत " मेरे पिताजी को गुजरे कई वर्ष हो गये है"
कम्प्युटर ने फ़िर कहा तुम्हारी माँ के पति को गुजरे कई वर्ष हो गये हैं पर तुम्हारे पिता अभी कलकत्ते के बार में शराब पी रहे हैं ।

*****

बॉटनी (कृषि विज्ञान) में स्नातक हो कर एक युवक घर आया तो देखा उसके पिताजी पेड़ों को पानी पिला रहे थे।
उसने कहा पिताजी आप ये क्या कर रहे हो इस तरह पत्तों पर पानी डालोगे तो इस पेड़ पर कभी भी चीकू नहीं लगेंगे।
पिता ने कहा बेटा वो तो तब भी नहीं लगेंगे जब मैं इस की जड़ों में पानी लुंगा क्यों कि यह चीकू का नहीं केले का पेड़ है।

*****

ट्रेन में एक यात्रा के दौरान एक प्रेमिका ने कहा " जानू मेरे सर में दर्द हो रहा है"
प्रेमी ने उसके सर को चूम लिया बस अब ठीक है प्रेमिका ने कहा " हाँ"
कुछ देर के बाद फ़िर प्रेमिका ने कहा जानू मेरे हाथ में दर्द हो रहा है" प्रेमी ने फ़िर वैसा ही किया और पूछा अब ठीक है?
प्रेमिका ने फ़िर कहा " हाँ"उपर की बर्थ पेर बैठे एक सज्जन से रहा नहीं गया उन्होने प्रेमी से पूछा
"क्यों जी क्या आप पाईल्स ( मस्से) का भी इलाज करते हो ? "

*****

बाथरूम में धमाके की आवाज सुन कर पत्नी घबरा गई और पूछा क्या हुआ?
पति अन्दर से बोले कुछ नहीं जरा बनियान गिर गई थी।
बनियान गिरने से इतनी तेज धमाके की आवाज?
हाँ मैने पहन जो रखी थी।

******
७५ वर्ष की उम्र में चीनी भाषा सीख रहे संता सिंह जी से मित्रों ने जब इसकी वजह पूछी तो संता सिंह ने बताया उन्होनें कल ही एक अनाथ २ महीने के चीनी (Chiness) शिशु को गोद लिया है।
******
सावधान अगर आप बस, ट्रेन, प्लेन या कहीं से भी जा रहे हो और किसी महिला/ लड़की के हाथ में धागा, फ़ूल, चैन या कोई भी चमकती चीज़ दिखाई दे तो वहाँ से तुरंत भाग जाईये,
यह चीज राखी भी हो सकती है, आपकी जरा सी लापरवाही आपको भाई बना सकती है।
........पुरूष हित में जारी......

******

जज ने वकील को कहा "तुम अपने सीमा से बाहर जा रहे हो , मैं तुम्हें कोर्ट की अवमानना के जुर्म में गिरफ़्तार करवा सकता हुँ"
कौन साला कहता है ?
ज ने कहा तुमने मुझे साला कहा
नहीं मी लोर्ड मैने यह कहा कौन सा ला ( Law) कहता है

******

एक बार एक हवाई यात्रा के दौरान एक भारतीय सेना के मेजर संता सिंह और पाकिस्तानी सेना के दो मेजर पास पास की सीट पर बैठे थे, अचानक पाकी सेना के एक मेजर ने कहा मैं ठंडा लेकर आता हुँ, संता सिंह जी ने विनम्रता से कहा आप बेठिये मैं लेकर आता हुँ।
संता सिंह जी ने जूते उतारे हुए थे सो भूल से जूतों को पहने बिना ही ठंडा लेने चले गये, तब तक पाकी मेजर ने मौका देख कर जूतों में पान की पिचकारी मार दी, थोड़ी देर बाद दूसरे ने भी एसा ही किया, संता सिंह जी को पता नहीं चला, लंदन एयरपोर्ट पर जब उन्होने जूते पहने तो उन्हे पता चल गया कि उनके साथ क्या हुआ है,
उन्होने उन दोनो मेजर को अपने पास बुलाया और बोले
यार हम कब सुधरेंगे "कब तुम जूतों में पान की पीक की पिचकारी मारना और हम तुम्हारे कोल्ड ड्रिंक में माय ओन कोला ( my own cola -Urin) मिलाना बन्द करेंगे।

******
एक बार एक सेठ डॉक्टर के पास गये और बोले साहब मुझे नींद कम आती है और कुछ कब्जियात भी रहती है
डॉक्टरने दो पुड़िया देते हुए कहा सुनो इसमें एक पुड़िया में नींद लाने और दूसरे में पेट साफ़ करने की दवाई है, ध्यान रखना ये दोनो दवाई साथ साथ मत ले लेना

*****

लुधियाना के संता सिंह जी ने डॉक्टर को फ़ोन किया
डॉक्टर साहब मैं ६ साल पहले कब्जियात का इलाज करवाने के लिये आपके पास आया तब आपने कहा था रोज ३ किलोमीटर चलने के लिये ?
डॉक्टर ने कहा तो, अब तुम कहाँ से बोल रहे हो ?
साहब अब मैं त्रिवेन्द्रम तक तो पहुँच गया हुँ।

*****

लुधियाना के संता सिंह जी ने एक बार फ़िर से डॉक्टर को फ़ोन किया
डॉक्टर साहब मैं ६ साल पहले आपके पास सर्दी जुकाम के इलाज के लिये आया तब आपने मुझे नहाने से मना किया था"
डॉक्टर ने कहा तो,
संता सिंह जी ने पूछा क्या अब मैं नहा सकता हुँ
टैगः ,

बुधवार, जुलाई 12, 2006

क्या हर मुसलमान बुरा होता है-2


पिछली प्रविष्टी लिखने से मेरा आशय किसी भी धर्म को क्लीन चिट देना या बुरा कहना से नहीं है। मेरे लेखों में कई विरोधाभास हो सकते हैं, उस का उत्तर मैं आगे देने की कोशिश करूंगा।
अच्छाई और बुराई यह मानवीय गुण है जो हर धर्म के लोगों में पाये जाते हैं। जिस तरह मैने शमीम मौसी को देखा है उस तरह एक और मुसलमान परिवार को देखा है जो हिन्दुओं से सख्त नफ़रत करते हैं।
उन दिनों की बात है जब मैं मोबाईल रिपेयरिंग का कोर्स मुंबई से सीख रहा था, रोज सुबह ५.३० की फ़्लाईंग रानी से मुंबई जाना और उसी ट्रेन से वापस आना।
एक दिन मुंबई से वापसी यात्रा के दौरान एक मुस्लिम परिवार साथ में था एक नवपरिणित महिला जो अपने मायके भरूच जा रही थी,एक ७-८ साल की बच्ची और उनके अब्बा भी थे। अब्बा और दीदी ऊँघने लगे और जैसा कि बच्चों की आदत होती है कविता बोलने/गुनगुनाने की बच्ची कुछ इस तरह बोलने लगी,
अल्लाह महान है
भगवान, भगवान नहीं शैतान है।
मैने बच्ची को पूछा आपको और क्या क्या आता है तो सुनिये उस ७-८ साल की बच्ची ने क्या बताया " भगवान दोजख/ जहन्नुम में रहते हैं और अल्लाह जन्नत में रहते है, हिन्दू काफ़िर होते हैं। और कई बाते उस नन्ही बच्ची ने हिन्दूओं के सम्मान में सुनायी जो यहाँ लिखी नहीं जा सकती। फ़िर मैने उस बच्ची को पूछा यह सब आपको किसने बताया । उसने कहा हमारे मदरसे के मौलवी साहब ने। उस बच्ची को मैने समझाय़ा नहीं बेटा यह गलत है ना हिन्दू बुरे होते हैं ना मुसलमान पर बच्ची के मन में जो बात इतनी दृढ़ता से बैठ चुकी थी वो उसके मन से नहीं निकला।
वह यही कहती रही हिन्दू बुरे होते हैं। उसने मुझे भी पूछ लिया आप हिन्दू हो अंकल? मैं क्या कहता उसे....?
आप सोचेंगे कि पहले मुसलमानों की तारीफ़ और अब यह पोष्ट... पर क्या किया जाये मैं ना तो तथाकथित सेक्युलर बन सका हुँ ना ही तोगड़िया और बाल ठाकरे की तरह कट्टर हिन्दू, ना आस्तिक हुँ ना ही नास्तिक, भगवान होते हैं या नहीं पता नहीं। तुष्टिकरण किसे कहते हैं पता नहीं।मैं अजमेर की दरगाह शरीफ़ भी जा चुका हुँ और अक्षरधाम भी। मेरे मकान मालिक आर जोशूआ साहब चुस्त ईसाई हैं और मेरी पत्नी को बेटी मानते हैं, मैने कई ईसाईयों को देखा है जो हिन्दुओं का दिया प्रसाद छूते भी नहीं पर जोशूआ साहब मेरे घर का प्रसाद भी खाते हैं।
मुझे कट्टरतावाद से सख्त नफ़रत है चाहे वो हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई हो। मैं मुकेश जी का यह भजन सही मानता हुँ-
सुर की गति मैं क्या जानूँ, एक भजन करना जानूँ ।
अर्थ भजन का भी अति गहरा, उसको भी मैं क्या जानूँ ॥
प्रभु प्रभु कहना जानुँ, नैना जल भरना जानूँ।
गुण गाये प्रभू न्याय ना छोड़े, फ़िर तुम क्यों गुण गाते हो।
मैं बोला मैं प्रेम दीवाना, इतनी बातें क्या जानूँ ॥
प्रभु प्रभु कहना जानुँ, नैना जल भरना जानूँ।
यहाँ सुनें
अन्त में:
अनुनाद जी: हम ऐसा कैसे मान ही लें कि हर बम विस्फ़ोट में किसी एक ही मजहब के लोगों का हाथ होता है? क्यों कि दाऊद इब्राहीम जैसे लोगों की गैंग में हर धर्म के गुंडे है जो हर तरह का काम करते हैं, मानता हुँ कि मुसलमान अधिक कट्टर होते हैं, हिन्दू नहीं और रोना भी इसी का है कि हिन्दूओं मैं ही एकता नहीं है। जैन,ब्राह्मण, कायस्थ , और ना जाने क्या क्या, जब तक सारे लोग हिन्दू नहीं हो जाते बम विस्फ़ोट होते ही रहेंगे। हम परिचर्चा में और यहाँ बहस करते ही रहेंगे फ़िर कुछ दिनों बाद ज्यों का त्यों। फ़िर कोई बम विस्फ़ोट होगा फ़िर बहस यह कब रूकेगी उपर वाला जाने।
पंकज भाई: मैं फ़िर कहुंगा कि सारे इस्लामी आतंकवादी नहीं है।

क्या हर मुसलमान बुरा होता है

परिचर्चा में मुस्लिम आतंकवाद से शुरु हुई बात कहाँ तक पहुँच गई है, मैं भी वहाँ लिखना चाहता था परन्तु यहाँ लिखना ही ठीक लगा ।
कुछ मेरी भी सुनो, जैसा आप जानते हैं गोधरा दंगों और 1992 के दंगों के समय में सुरत, गुजरात में रह रहा था, दंगे के दिनों में मैने खुद मुसलमानों को मुसलमानों की दुकानें लूटते और हिन्दुओं को हिन्दुओं को नुकसान पहुँचाते देखा है।मेरे कहने का मतलब यह है कि दंगाईयों का कोई धर्म या मजहब नहीं होता।
हमारे मकान मालिक स्व. हैदर भाई मुस्लिम थे, दो साल हम साथ रहे, उनके मांसाहार की वजह से कई बार हमारी बहस हुई, पर आज उस बात को १५ साल बीत चुके परन्तु प्रेम में कोई कमी नहीं आई, बड़े भाई बैंगलोर रहते हैं, जब भी सूरत आते सबसे पहले शमीम मौसी के पाँव छूने जाते हैं मेरा भी यही है जब तक सूरत रहा १५ दिन में एक बार उनके घर जाना पड़ता था। शायद मेरी सगी माँ जितना प्रेम करती है, उतना ही प्रेम शमीम मौसी करती है। हर बार मिठाई, फ़ल फ़्रूट आदि जबरदस्ती देती है, अगर मना करो तो कहती है कि तेरी माँ देती तो क्या मना करता? हम कुछ कह नहीं पाते, यह लिखते समय शमीम मौसी और उनके बच्चों फ़िरोज और शबनम का प्रेम याद कर आँख से आँसू टपक पड़े है। क्या हर मुसलमान बुरा होता है और हर हिन्दू जन्मजात शरीफ़?
जब हैदर भाई का निधन हुआ और मैं मौसी से मिलने गया तब पता चला कि मुस्लिम समाज में पति के निधन के बाद स्त्री ४० दिन तक किसी गैर मर्द से नहीं मिल सकती पर मौसी हम से मिली और हमारा प्रेम देख कर उनके समाज के दूसरे लोग भी आश्चर्यचकित हो गये। मैं अपने दोस्तों को भी अपने साथ उनके घर गया हुँ मेरे हिन्दू दोस्त भी नहीं मान पाते कि शमीम मौसी हिन्दू नहीं है! जब कि शमीम मौसी पक्की नमाजी मुसलमान स्त्री है और बिना नागा पाँचों वक्त की नमाज अदा करती है।
सुरत छोड़ते समय शबनम प्रसूति पर सुसराल से आयी हुई थी, मेरे पाँव छूने लगी मैने उसे ऐसा नहीं करने दिया और १५१/- उसे दिये तो मौसी ने मना कर दिया, मैने कहा मौसी आप कौन होती है भाई बहन के बीच में पड़ने वाली ? मैं मेरी बहन को कुछ भी दँ आप नहीं रोक सकती उस वक्त का दृश्य याद कर अब और लिखने की हिम्मत नहीं रही । आँखों से आँसू बह निकले है। उस दिन मेरे साथ मेरा एक मित्र जगदीश चौधरी था वह उस दिन रो पड़ा था ।
यह आप सब को शायद अतिशियोक्ती लग सकती है, परन्तु यह सच है और आप मुझसे शमीम मौसी का फ़ोन नं लेकर उनसे सारी बातें पूछ सकते हैं। वो महान मुसलमान महिला इस पर भी हमारा बड़प्पन जतायेगी कि सागर और शिखर बहुत अच्छे हैं जो हम से इतना प्रेम करते हैं । धन्य हैं एसे मुसलमान परिवार जिनके ह्रूदय में हिन्दू मुसलमान नहीं बल्कि प्रेम ही प्रेम भरा है।
जब कभी भी दंगे होते हैं हम अक्सर मुसलमान को कोसते है परन्तु मैं नहीं मानता कि हर मुसलमान बुरा होता है। हर मुसलमान दाऊद इब्राहीम नहीं होता, उनमें से ही कोई डॉ. कलाम बनता है, हमारे सुहैब भाई भी इस का सबसे अनुकरणीय उदाहरण है जो अपने आप को मुसलमान की बजाय हिन्दुस्तानी कहलाना ज्यादा पसन्द करते हैं।

सोमवार, जुलाई 10, 2006

राजस्थानी भाषा का नारद

कुछ लोगों की उत्साह वाकई गज़ब होता है। अपने टी आर पी विशेषज्ञ बाबा बेंगानी उर्फ़ संजय बेंगानी इस का उत्तम उदाहरण है। कुछ दिनों पहले गूगल पर बेंगानी बाबा से बात करते समय मैने कुछ वाक्य राजस्थानी में लिख दिये, तभी महोदय के मन में विचार आया कि क्यों ना राजस्थानी में भी चिठ्ठा लिखा जाये, हमने तो सोचा कि बाबा मजाक कर रहे हैं पर यह क्या, अगले दिन सुबह कि मेल से संदेश मिला कि मैने अपना राजस्थानी चिठ्ठा "घणी खम्मा "बना लिया है, और हमें आदेश दिया कि तुम भी अपना राजस्थानी चिठ्ठा बनाओ! भाई बाबा के आदेश का पालन करना जरूरी है नही तो एक मंतर मारेंगे कि सारी टी आर पी गायब हो जायेगी सो हमने भी अपना राजस्थानी चिठ्ठा " राजस्थली"बना लिया है।
इस के साथ ही बाबा बेंगानी उर्फ़ संजय बेंगानी राजस्थानी भाषा के पहले और सागर दूसरे चिठ्ठा कार हो गये।
अब चिठ्ठा तो लिख लिया पर राजस्थानी भाषा के लिये नारद कहाँ से लायें!!
तो साहब अपने परम पूज्य बाबा बेंगानी ने इस का रास्ता भी निकाल लिया पहले गुजराती नारद" ઓટલો" के बाद आपने राजस्थानी भाषा के नारद "राजस्थान तरकश " भी बना लिया है। इतना ही नहीं बाबा बेंगानी अब राजस्थानी भाषा का शब्दकोष भी बना रहे हैं।
ध्यान रहे कि बाबा बेंगानी का नामकरण हमने किया है यह हमारा कॉपीराईट है सो इस शब्द को उपयोग में लेने से पहले शुल्क के रूप में हमें धन्यवाद देना जरूरी है वरना हम बाबा से कह कर ऐसा टोटका करेंगे/ करवायेंगे कि आपके चिठ्ठे पर कोई टिप्प्णी भी नहीं करेगा।
राजस्थानी भाषा के शब्दकोष में सभी राजस्थानी भाषा के जानकार भाई बहनों का सहयोग अपेक्षित है, आप सब संजय भाई को या मुझे मेल लिख कर सहयोग कर सकते हैं, धन्यवाद।

शनिवार, जुलाई 08, 2006

अपने चिठ्ठे का टी आर पी कैसे बढ़ायें?


आज निधि जी के चिठ्ठे चिन्तन पर टी आर पी बढ़ाने संबधित लेख पढ़ा। चुँकि निधि जी चिठ्ठाकारी के क्षेत्र में नयी हैं ( अब हम कौन हड़्ड़पा और मोहन जोदड़ो के जमाने के है) परन्तु उनके इस लेख ने कई पुराने चिठ्ठाकरों के लेखन की गुणवत्ता को चुनौती दे दी है।

अब आते हैं मूल विषय पर कि अपने ब्लॉग की टी आर पी कैसे बढ़ायें?
तो पेश है जनाब कुछ नुस्खे

हर एक चिठ्ठे पर जाकर टिप्पणी दें कुछ समीर जी और सागर चन्द की तरह । टिप्पणी कैसे दें यहाँ सीख सकते हैं। वैसे खुछ खास नहीं करना है समीर जी के लेख की टिप्पणीयाँ सेव कर लें बाद में बस copy, pest ही करते रहें।

किसी के चिठ्ठेपर टिप्पणी करें तब अपने चिठ्ठे का लिन्क देना ना भूलें।

परिचर्चा के ज्वलन्त मुद्दे वाले थ्रेड में जाकर किसी विषय पर सारी टिप्पणियों के विपरित टिप्पणी दें, वहाँ भी अपने हस्ताक्षर के साथ अपने चिठ्ठे का लिन्क अवश्य दें।

व्यंगात्मक टिप्पणी दो लोग बदला लेने आपके चिठ्ठे पर जरूर आयेंगे।

आमिर खान, नरेन्द्र मोदी और नर्मदा जैसे विषयों पर लेख लिखो, जिसमे नरेन्द्र मोदी, भाजपा, नर्मदा का फ़ेवर हो और महेश भट्ट, शबाना आज़मी, आमिर खान, तिस्ता सेतलवाड आदि का विरोध ।

अपने धर्म के बारे में अनर्गल लिखो।

टाईटल एक दम कुछ हटके रखो जैसे अलविदा चिठ्ठा जगत , अपने चिठ्ठे का टी आर पी कैसे बढ़ायें? और अपना ब्लाग बेचो, भाई एवं आप सब बुद्धिजीवियों से ये उम्मीद ना थी! आदि........पाठकों को कैसे पकायें? जैसा टाईटल कभी ना रखें।

समय समय पर लोगों को अपना स्टार्ट काऊंटर का अंक बताते रहो कि अब मेरे १००० हिट पूरे हुए अब मेरे १००१ हिट पूरे हुए। कुछ इस तरह।

कुछ पहेली शहेली भी कभी कभार अपने चिठ्ठे पर लिख दो, जिसका हल आपको भी ना आता हो।

एन आर आई पर उनके देश प्रेम के प्रति संदेह व्यक्त करते हुए लेख लिखो। भले ही वह झूठ ही क्यों ना हो।

कुछ बेतुकी रोमान्टिक कविता लिखो ( आईडिया सौजन्य: ई-स्वामी जी)

समय समय पर सन्यास लेने की धमकी देते रहो, वीरू प्राजी की तरह टंकी पर चढ़ कर ! और हाँ सागर की तरह भी,लोग बाग मौसी जी की तरह डर कर आपको मनाने जरूर आयेंगे । यह सब से कारगार नुस्खा है अपने चिठ्ठे का टी आर पी बढ़ाने का।

मुफ़्त के जुगाड़ ढूंढ कर अपने चिठ्ठे पर उनका लिन्क दो।

कुछ नई खोज और नयी वैज्ञानिक क्रान्ति के बारे में लिखो।

अपने चिठ्ठे पर लेख लिख कर पुराने चिठ्ठा लेखकों से बेवजह पंगा लेते रहो ।

अंत में यहाँ और बहुत सारे आईडिया है सारे क्या मैं ही बताऊंगा क्या आप कुछ नही करोगे । सौजन्य मेरा पन्ना

शुक्रवार, जुलाई 07, 2006

चुट्कुले-1 ( अनूगूँज )

Akshargram Anugunj
एक बार संजय भाई की दुर्घटना वश एक पाँव की हड्डी टूट गई, अस्पताल में पास के बिस्तर पर सागर चन्द लेटे थे जिनकी दोनो पाँव की हड्डी टूटी हुई थी,
संजय भाई से रहा नहीं गया सागर से पूछ बैठे " आप की दो पत्नियाँ है क्या?
******

एक आदमी कार का दरवाजा खोल कर दौड़ कर एक मेडिकल स्टोर में गया और उसने कहा जल्दी से हिचकी बन्द करने की दवा दो"
दुकानदार काऊँटर कूद कर बाहर आया और उस आदमी को एक कस कर थप्पड़ मार दिया और बोला अब आप की हिचकी बन्द हो गई होगी ?
उस बेचारे ने कहा कि आप भी दवा किसी को भी दे देते हो हिचकी मुझे नहीं गाड़ी में बैठी मेरी पत्नी को हो रही है।
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होमियोपेथ डॉक्टर ने एक महिला को दवा देते हुए कहा ये तीन पुड़िया दवा दे रहा हुं रात को सोते समय लेना है।
महिला ने कहा डॉक्टर साहब इस बार जरा पतले कागज में बाँधना पिछली बार पुड़िया निगलने में बड़ी तकलीफ़ पड़ी थी।
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एक मालिक ने अपने क्लर्क से पूछा आप मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास करते हो?
क्लर्क ने कहा जी हाँ साहब!
बहुत अच्छी बात है तो हुआ युँ कि तुम्हारे जिन दादा की अन्तिम क्रिया में जाने की बात कह कर तुम दो दिन की छुट्टी लेकर गये थे; तुम्हारे दादा तुम्हारे जाने के बाद तुमसे मिलने यहाँ आये थे ।
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एक गरीब आदमी ने रात को सोते समय अपने भूखे बच्चों को कहा आज रात जो बिना खाना खाये सो जायेगा उसे पाँच रुपये का इनाम मिलेगा।
बेचारे बच्चे पाँच पाँच रुपये ले कर सो गये,
अगली सुबह उसने फ़िर बच्चों से कहा आज खाना उसे मिलेगा जो मुझे पाँच रुपये देगा।
******

एक व्यक्ति अपने मित्र से कह रहा था वाकई मुझे पता चल गया है कि पूरे भारत में एकता और अखंडता है।"
दूसरे ने पूछा कैसे पता चला?
उसने कहा मैं जब दिल्ली गया तब वहाँ के लोग मुझे देखकर हंसते थे, मुंबई गया तब भी,कोलकाता और चेन्नई गया तब भी।
******

मंगलवार, जुलाई 04, 2006

मैं तो मजाक कर रहा था.

शीर्षक सौजन्य: विजय वडनेरे
साथियों आप सब के असीम प्रेम और अनुरोध को ठुकरा पाने का साहस मुझमें नहीं इस लिये सन्यास लेना कैन्सिल (बकौल ईस्वामीजी) " वीरू प्राजी" वाली ईश्टाईल में मैं टंकी से नीचे से नीचे उतर रहा हुं।
यह तो मजाक हुआ, खैर इस सारे प्रकरण में मुझे कई लोगों ने अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने को कहा और हिम्मत दी उन सब को अन्त:करण से धन्यवाद देता हुँ। टिप्पणी के अलावा भी कई लोगो ने ईमेल के जरिये मुझे समझाया उन सबका भी हार्दिक धन्यवाद।

शुक्रवार, जून 30, 2006

अलविदा चिठ्ठा जगत

आदरणीय अतुल भाई एवं ईस्वामीजी
मेरी पोस्ट को एक बार फ़िर से पढ़िये और बताईय़े कि मैने कहाँ आप लोगों पर व्यक्तिगत कुछ लिखा है या कहाँ आप लोगों को देशद्रोही साबित करने की कोशिश की है? मैने उस सारे समूह के लिये लिखा है जो अक्सर अमरीका या किसी विदेश से तुलना करते समय इतने तल्ख हो जाते है कि कई बार उनका स्वर भारत के प्रति उपहास पूर्ण हो जाता है, विषय यह था कि अमरीकी समाज कैसा है न कि भारत में क्या बुराईयाँ है। ये ना भूलें कि भारत को आजाद हुए कितने वर्ष हुए है और इन सालों में भारत ने जितनी तरक्की करी है शायद किसी देश ने नहीं की होगी, अब रही बात भ्रष्टाचार या अपराध की तो मैं यह कहूँगा कि कूड़ा करकट हर गाँव में होता है। अब भारत जैसा भी है अपना ही है।
जिस तरह आप सबने अपनी राय रखी मैने भी रखी इसमें इतना बुरा मानने की कतई जरूरत नहीं थी, फ़िर भी आप की भावनायें आहत होती हो तो क्षमा याचना।
संजय भाई
सलाह के लिये धन्यवाद, किसी की भावनाओं का इतना भी मजाक ना उड़ायें कि उसे यह लगने लगे कि चिठ्ठा लिखना ही व्यर्थ है, देश के प्रति मेरा जो प्रेम है उसके लिये ध्वज लगाने का दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं होती, दिखावा वे करते होंगे जिनके पास कुछ होता नहीं।
मुझे अक्सर कहा जाता है कि भावनाओं मैं ना बहुँ पर भावनाओं में मैं नही बहा आप सब बहे हैं।
एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति आप लोगों की तरह बातों को अच्छे शब्दों में नहीं ढ़ाल सकता, और शायद इसिलिये में अपने आप को चिठ्ठा लिखने के योग्य नहीं समझता और इस अपने अन्तिम चिठ्ठे के साथ आप सब से विदा लेता हुँ, आज के बाद आपको कहीं भी मेरे बेहुदा चिठ्ठे और बचकानी टिप्पणियाँ (परिचर्चा पर भी) पढ़ने को नहीं मिलेंगी।
मेरे शब्दों से आप लोगों को जो तकलीफ़ हुई उन सबसे मैं एक बार और क्षमा याचना करता हुँ । और आप लोगों ने अब तक जो प्रेम दिया उसके लिये धन्यवाद देता हुं।

गुरुवार, जून 29, 2006

अमरीका अमरीका

चाहे हजार तकलीफ़ें हो, अमरीका से हजार गुने अपराध होते हों पर फ़िर भी भारत सबसे महान है। पैसों की चमक दमक भले ही अमरीका सी ना हो पर यहाँ जो प्रेम है वह कहीं नहीं है।
हम में से शायद बहुत कम लोगों ने एक दूसरे को आमने सामने से देखा होगा पर यह प्रेम नहीं है तो क्या है कि सागर चन्द जब जीतू भाई से नहीं मिल पाता तो उसे इस तरह का दुख होता है मानों अपने सगे बड़े भाई से नहीं मिल पाया हो, और जीतू भाई अगले दिन फ़ोन कर ना मिल पाने के लिये अफ़सोस प्रकट करते हैं।
यह प्रेम नहीं तो क्या है कि सागर की एक फ़रमाईश पर आदरणीय अनूप जी( फ़ुरसतिया जी) 10 पेज की फ़िराक गोरखपुरी की कविता टाईप कर पढ़वा देते हैं। दूसरे ही दिन फ़िर गुलजार साहब की रचना पढ़वाते है।
यह भारत के ही लोग है जो अपने देश की आलोचना सुन कर भी खामोशी से पढ़ रहे हैं वरना यह जापान या कोई ओर देश होता तो अपने देश के बारे में बुरा कहने वालों के साथ क्या सूलूक करता यह आप सब बेहतर जानते होंगे।
भाई लोग तुलना करना बन्द करो, होगा अमरीका श्रेष्ठ; भारत किसी से, कहीं भी कम नहीं है।

ये हमारे पथ प्रदर्शक ?


धर्म प्रचारकों पर मास्साब के विचार जान कर प्रसन्नता हुई, मैं भी कुछ कहना चाहता हुँ, सबसे पहले यह कहना चाहूंगा कि मुझे यह लिखने से इन का भक्त ना समझा जाये क्यों कि मैं पहले ही इन दोनो साधुओं के बारे में यहाँ लिख चुका हुँ।
सबसे पहले आईना जी ने लिखा "ओशो राम देव से लेकर श्री श्री रविशंकर सब की नजर अमीरों पर ही होती है। और सुनील जी ने लिखा श्री श्री रविशंकर का नाम बहुत सुना था, उनका बीबीसी की एशियन सर्विस पर लम्बा साक्षात्कार सुना, तो थोड़ी निराशा हुई उनके उत्तर सुन कर. उनका कहना कि उन्होने सुदर्शन क्रिया का पैटेंट इसलिए बनाया ताकि सारा पैसा उनकी फाऊँडेशन का अपना बने तथा उसका अन्य लोग पैसा न कमा सकें, सुन कर लगा मानो किसी व्यापारी की बात हो, न कि कि महात्मा या गुरु की!
इस बारे में कहना चाहता हुँ कि श्री श्री रविशंकर अगर सुदर्शन क्रिया या उनके अन्य कार्यक्रम सिखाने का अगर पैसा लेते है तो इसमे कुछ बुरा नहीं करते, क्यों कि यह पैसा श्री श्री की जेब में नहीं जाता, उन पैसों से कई समाज उपयोगी कार्य होते है, इस बारें में अधिक जानकारी के लिये त्सुनामी और भूकंप के बाद के समाचार पत्रों को एक बार फ़िर से पढ़ लें, और सुदर्शन क्रिया जिन लोगों ने नहीं की वे इस बारें कुछ नहीं कह सकते, अपने अनुभव नहीं बता सकते।मैने की है मै मानता हुं कि इस क्रिया के लिये 500/- की बजाय 5000/- भी अगर मांगे तो दिये जाने में कोई हर्ज नहीं है। और वैसे भी मुफ़्त की चीज हमें हज़म जरा मुश्किल से होती है, हम शुल्क देते है तो उस के प्रति गंभीर होते हैं, और कुछ अवचेतन मन से ही पर अपना पूरा पैसा वसूल करते हैं। यही क्रियाएं अगर मुफ़्त में मिलने लगेंगी तो कोई भी इसके प्रति गंभीर नहीं होगा।
और रही बात अमीरों पर नजर होने की तो मैं कहना चाहता हुँ कि स्वामी रामदेव इस बात को स्वीकारते हुए कहते हैं हैं कि उन के शिविरों का सारा पैसा इन अमीरों की जेब से आता है, मैने कहीं पढा़ था कि जो लोग अच्छे लेखक नहीं सकते वे अच्छे आलोचक बन जाते हैं जैसा ही कुछ यह है ।
कुछ इसी तरह कि हमें ब्लॉगर पर मुफ़्त लिखने को मिलता है तो कुछ भी अंट शंट लिख देते हैं, यही हमें इस के पैसे देने पडे़ तो हम भी रह अच्छा लिखना शुरु कर देंगे और अपनी कीमत वसूल करने की कोशिश करेंगे।
यही बात स्वामी रामदेव पर लागू होती है। उन्होनें कभी धर्म का प्रचार नहीं किया, कभी शिष्य नहीं बनाये, वे अगर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के शीतल पेयों को पीने के खिलाफ़ बात करते हैं तो क्या गलत करते हैं। भारत सरकार के स्वास्थय मंत्री डॉ अम्बुमणि रामदास खुद स्वीकार कर चुके है कि इन पेयों में कीटनाशक होते हैं और श्रीमती सुनीता नारायण की वैज्ञानिक टीम तो साबित भी कर चुकी है।
सुरत शिविर में मैने अपनी पत्नी के साथ भाग लिया और पाया है कि स्वामी रामदेव के बताये प्राणायामों से शरीर पर लाभ होता है, यह मैं खाली पढी़ सुनी बातों पर विश्वास कर नहीं लिख रहा,
ना ही यह कोई सम्मोहित हुं, स्वयं अनुभव कर लिख रह हुँ, मेरी पत्नी का वजन तो 5 kg कम हुआ ही साथ में और भी कई शारीरिक लाभ हुए।
रवि कामदार जी को पता नहीं एक दो फ़ुट की दाढी़ वाले संत में स्त्री कहाँ नज़र आयी ये समझ में नहीं आता, अहमदाबाद तो में देख चुका हुँ , वहाँ तो महिलाओं के दाढी़ नहीं होती फ़िर पता नहीं वे कहाँ देख आये। पंकज भाई होती है क्या ? और करण जौहर कब दाढी रखते थे ये रवि जी को ज्यादा पता होगा।क्या उन की आवाज पतली है इस वजह से आप एसा कह रहे हईं तो मत भूलिये कोई हमारा प्रिय पात्र भी किसी शारीरिक कमी या अपाहिजता का शिकार हो सकता है तब क्या हम उनके लिये भी यही शब्द प्रयोग करेंगे?
रवि जी माना कि वे अमीरों के गुरू हैं, पर मैं मासिक मात्र 4000/- कमाता हुँ पर उन के ध्यान और क्रियाओं को पसन्द करता हुँ। और किसने कहा कि श्री श्री गाँवों में नहीं जाते? त्सुनामी से हुए नुकसान के बाद उन्होनें कई बार गाँवों का दौरा किया है।
टिप्पणी करना बहुत आसान है कुछ लोगों को बुद्धिजीवी होने का भ्रम हो गया है श्री श्री के लिये कहते हैं खेर इनको हम प्रसिध्धि के भूखे इस लिये कह सकते है क्योकि यह भी अपने आगे श्री श्री लगवाते है!! और अपने भक्तों को श्री श्री कहने से रोकते भी नहीं वे ही अपने आप को तत्वज्ञानी की ही उपाधी दे रहे है, पता नहीं ये कैसा तत्व ज्ञान है। हमने तो एसा तत्व ज्ञान कहीं नहीं देखा किसी ने देखा हो तो बताओ भाई लोग।
मैं आसाराम जी बापू, नीरू माँ, पान्डूरंग शाष्त्री या कोई अन्य धार्मिक प्रचारक की बात नही करता क्यों कि दोष उनका नहीं कुछ हमारा भी है जो हम इन लोगों को सर माथे चढ़ाते हैं और बाद में जब छले जाते हैं तो रोना रोते हैं।

यह सब लिखने से मुझे इन का भक्त नहीं समझा जाये क्यों कि मैं पहले ही कह चुका हुँ कि मैं इन का भक्त नहीं हुँ, और इस के अगले अंक में इन लोगों की खिंचाई भी होगी। ये लोग चाहे जैसे हो हमसे से तो श्रेष्ठ है



शनिवार, जून 17, 2006

अमूल विज्ञापन

आखिर मास्साब ने विज्ञापनों का चस्का लगा ही दिया।
विज्ञापन बनाने में अमूल का जवाब नहीं! किसी भी विषय (Current affair) पर विज्ञापन बनाने में माहिर अमूल के विज्ञापनों में ने हास्य का पुट अधिक होता है ही साथ में सामाजिक चेतना भी होती है ; कुछ विज्ञापन देखिये

फ़िल्म: फ़ना

नर्मदा और आमिर

दा विन्ची कोड

आरक्षण

फ़ैशन वीक

च...च...च बेचारा सौरव

मंगल पान्डे

इस श्रेणी में और भी कई विज्ञापन है जो अगले अंकों में प्रकाशित होंगे

सौजन्य: अमूल

बुधवार, जून 14, 2006

कुछ निन्दनीय पंक्तियाँ माँ के लिए


माँ की शान में हजारों शब्द लिखे जा चुके हैं, हिन्दी चिठ्ठा जगत में भी अक्सर माँ पर कुछ ना कुछ लिखा जाता रहा है, अब कल ही अपने श्री अनूप शुक्ला जी ने अपने चिठ्ठे "फ़ुरसतिया" पर स्व. फ़िराक गोरखपुरी जी की कविता माँ प्रकाशित की, परन्तु क्या माँ की निन्दा की जा सकती है?
खासी भाषा के कवि किन फाम सिं नौगकिनरिह की एक कविता कुछ निन्दनीय पंक्तियाँ माँ के लिए की कड़ी यहाँ दे रहा हुँ मर्यादा की दृष्टि से कविता यहाँ प्रकाशित नही कर पा रहा हुँ और उसका लिंक दे रहा हुँ कविता के कुछ शब्द आघात जनक है, परन्तु कवि बहुत सहजता से अपने शब्दों को कह जाते हैं

रविवार, जून 11, 2006

हैदराबाद ब्लॉगर मीट : जो हो ना सकी


कुछ दिनों पहले जीतू भाई से गूगल टाक पर बात हुई तब उन्होने बताया कि वे दिनांक १०-०६-२००६ को नागपुर से बंगलोर जायेंगे हैदराबाद उस रास्ते में ही आता है और गाड़ी लगभग १५ मिनीट सिकन्दराबाद स्टेशन पर रुकेगी।
मैं यह जान कर बड़ा प्रसन्न हुआ कि चलो जीतू भाई से मिलना होगा, यह बात श्री नितिन बागला जी को भी बताई तो वे भी बड़े खुश हुए। जीतू भाई ने मुझसे पूछा कि मैं आपको अपना कोच नं कैसे दुंगा, क्यों कि उनका टिकिट कन्फ़र्म नही हुआ था और वेटिंग लिस्ट भी कोई खास नहीं थी ५/६ वेटिंग थी सो कन्फ़र्म होना लगभग तय था, तब मैने उनसे उनके टिकिट का पी.एन.आर. नं. ले लिया और उस दिन से दिन में तीन बार चेक कर रहा था कि टिकिट कन्फ़र्म हो और कब कोच नं. पता कर जीतू भाई से मिला जाये !!!
पर हम जो सब सोचते है वो कब होता है दिनांक ७--६-०६ को नितिन जी से बात हुई तो उन्होने बताया कि उनके नानाजी का देहांत हो गया है सो वे ९ को राजस्थान अपने गाँव जाने वाले हैं और जीतू भाई से मिलने नहीं आ पायेंगे। खैर.... दिनांक १०.०६ को सुबह जब भारतीय रेल्वे की साईट पर पी एन आर नं डाला तो वहाँ लिखा था Can/mod यानि कि केन्सल या मोडिफ़ाईड। अब क्या किया जाय़ यह भी पता नहीं पड़ रहा था कि जीतू भाई आने वाले हैं या नहीं। पंकज भाई उर्फ़ मास्साब से पूछा कि उनके पास क्या उनका टेलिफ़ोन नं. है तो पता चला कि नहीं। अब कोई रास्ता नहीं था सम्पर्क करने का तो मैने सोचा कि रेल्वे स्टेशन ही चलते हैं। १५ मिनिट में तो आराम से ढुँढ लिया जा सकता है।
तो साहब में ६.४५ पर रेल्वे स्टेशन पर पहुँचा तो पता चला कि गाडी़ अपने सही समय यानि ७.०० बजे आयेगी, आखिर गाडी़ अपने सही समय यानि ७.२० पर स्टेशन पर आई!!!!
भारतीय़ रेल्वे जिन्दाबाद!! लालू यादव जिन्दाबाद!!!
अगर ट्रेन २०मिनीट भी लेट हो तो भी उसे सही समय कहा जाता है, ट्रेन भी कौनसी राजधानी एक्सप्रेस जो भारत की सबसे तेज गाड़ियों में गिनी जाती है।
खैर साहब ट्रेन पूरी छान मारी तीन चक्कर आगे से पीछे लगा लिये, तभी एक सज्जन कुछ सिन्धी महिलाओं से सिन्धी में बातें करते दिखे, शकल सूरत से बिल्कुल अपने जीतू भाई!!
मैं खुश होकर उनकी और लपका और उनसे पूछा
"आपका नाम जीतू भाई है?
उन्होने कहा "हाँ, पर आप कौन?
मैने कहा मैं सागर चन्द नाहर।
उन्होने कहा मैने आपको पहचाना नहीं!!
मैं एकदम चौंक गया जीतू भाई मुझे शक्ल से नहीं पर नाम से भी नही पहचाने ये तो हो नहीं सकता! मैने पूछा
आप कुवैत से आयें हैं?
उन्होने कहा "नही"
तब मुझे लगा कि यह तो अच्छी मजाक हो गयी जिन्हें मैं जीतू भाई समझ बैठा था सयोंग से उनका नाम भी जितेन्द्र था और थे भी सिन्धी।
आखिर आप के सागर चन्द उदास थके और कदमों से वापस घर आ गये ।
पुनश्चय: यह प्रविष्टी टाईप कर पोस्ट करते समय मेरे जिजाजी (जिनका सुपर स्टोर मेरे घर के सामने है और मैने फ़ोन नं उन्ही का दिया था) ने एक संदेश दिया कि जब मै खाना खाने रेस्टोरेंट गया था ( पत्नी और बच्चे छुट्टियाँ मनाने गये हैं) तब कुवैत वाले जीतू भाई का फ़ोन आया था कि वे हैदराबाद नहीं आ पा रहे है और नागपुर से सीधे ही बेंगलोर जायेंगे।
जीतू भाई अगर पढ रहे हों तो उनसे अनुरोध है कि खेद व्यक्त ना करें क्यों कि इसमें आपका कोई दोष नही है।
संभव हो सके तो वापसी के समय इधर जरूर आयें।

मंगलवार, मई 23, 2006

क्या आपको जीवन के अभावों से शिकायत है?

  • अगर आपको अपने जीवन के अभावों से शिकायत हो तो एक बार यहाँ देखिये, और कहिये क्या अब भी आपको शिकायत है?
  • एक नज़र यहाँ भी डालें

बुधवार, मई 17, 2006

यह तो कमाल हो गया

आज वेब दुनिया पर एक समाचार पढ़ कर आश्चर्य हुआ कि वियतनामी प्रधान मंत्री "फ़ान वान खाई" लगातार (मात्र) १० वर्षों तक प्रधान मंत्री रहने के बाद सेवा निवृत होना चाहते हैं। निवृत होने के लिये जो वजह उन्होने बताई है वह वजह सुन कर और भी आश्चर्य होता है कि वे अब नयी पीढ़ी के लोगों को मौका देना चाहते हैं।

इस जगह हमारे देश में यह घटना हुई होती तो त्याग के नाम पर और उनके चमचे चीख चीख कर देश को सर उठा लेते तथा समारोह कर करोड़ों रुपये खर्च दिये जाते

श्री खाई अभी मात्र ७३ वर्ष के है जो भारतीय राजनीती के हिसाब से काफ़ी युवा हैं। कहाँ हमारे बुढ्ढे नेता जिनके पाँव कब्र में लटके रहते हैं फ़िर भी नेतागिरी या पद का मोह नही छोड़ पाते।

विश्वास नहीं होता;

डेक्कन क्रानिकल, हैदराबाद १६-०५-२००६

में छपी यह तस्वीर देख लें।


सोमवार, मई 15, 2006

चिठ्ठाकार मित्रों को धन्यवाद

विश्वास नहीं होता ये मैने किया है, परन्तु आप सभी चिठ्ठाकार भाई बहनों के बिना यह कहाँ संभव था कि एक अल्प शिक्षित हिन्दुस्तानी जिसे अंग्रेज़ी भी ढ़ंग से पढ़ना नही आती, जिसे कई बार हिन्दी में भी दिक्कतें आती हो, सोफ़्टवेर के मामले में भी शून्य बटा शून्य हो उसके चिठ्ठे पर मित्रों ने मात्र 2 महीने में एक हजार से ज्यादा बार मुलाकात ली, टिप्पणी और सुझाव दिये।
आज मेरे चिठ्ठे का मीटर 983 का अंक बता रहा है, जब मार्च में (12 मार्च)मैने लिखना शुरू किया तब थीम और डिजाईन वगैरह बदलने के समय एक दो बार मीटर शुन्य हो गया था, पहले पहले कई परेशानियाँ हुई बाद में जीतू भाई साहब (मेरा पन्ना), पंकज जी (मंतव्य) आदि मित्रों और वरिष्ठ चिठ्ठाकारों का सहयोग मिलता गया और राह थोड़ी आसान होती गयी.
कई बार मुझे इस बात का दुख होता है कि में अन्तर्जाल के व्यव्साय में होते हुए भी एक वर्ष तक हिन्दी चिठ्ठा जगत से अपरिचित रहा क्यों कि पिछले वर्ष फ़रवरी 2005 में मैने साईबर कॉफ़े चालु किया और फ़रवरी 2006 में पहली बार हिन्दी चिठ्ठा पढ़ा। खैर देर आये दुरस्त आये।
एक बार फ़िर में आप सभी को धन्यवाद अदा करता हुँ और आशा करता हुँ कि भविष्य में आप का इसी तरह सहयोग मिलता रहेगा।

रविवार, मई 14, 2006

अम्मा एक कथा गीत

छतियाने पर आपने चिठ्ठाकारों की कई कवितायें और संस्मरण पढ़े आज पढ़िये, हैदराबाद के सुप्रसिद्ध और मेरे प्रिय दैनिक हिन्दी मिलाप में दिनांक 14-05-2006 को प्रकाशित मातृत्व दिवस पर सुधांशु उपाध्याय की सुन्दर कविता :
"अम्मा "
(एक कथा गीत )
थोड़ी थोड़ी सी धूप निकलती थोड़ी बदली छाई है
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
शॉल सरक कर कांधों से उजले पावों तक आया है
यादों के आकाश का टुकड़ा फ़टी दरी पर छाया है
पहले उसको फ़ुर्सत कब थी छत के उपर आने की
उसकी पहली चिंता थी घर को जोड़ बनाने की
बहुत दिनों पर धूप का दर्पण देख रही परछाई है
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

सिकुड़ी सिमटी उस लड़की को दुनियां की काली कथा मिली
पापा के हिस्से का कर्ज़ मिला सबके हिस्से की व्यथा मिली
बिखरे घर को जोड़ रही थी काल-चक्र को मोड़ रही थी
लालटेन सी जलती बुझती गहन अंधेरे तोड़ रही थी
सन्नाटे में गुंज रही वह धीमी शहनाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

दूर गांव से आई थी वह दादा कहते बच्ची है
चाचा कहते भाभी मेरी फ़ुलों से भी अच्छी है
दादी को वह हंसती-गाती अनगढ़-सी गुड़िया लगती थी
छोटा में था- मुझको तो वह आमों की बगिया लगती थी
जीवन की इस कड़ी धूप में अब भी वह अमराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
नींद नहीं थी लेकिन थोड़े छोटे छोटे सपने थे
हरे किनारे वाली साड़ी गोटे गोटे सपने थे
रात रात भर चिड़िया जगती पत्ता पत्ता सेती थी
कभी कभी आंचल का कोना आँखों पर धर लेती थी
धुंध और कोहरे में डुबी अम्मा एक तराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

हंसती थी तो घर में घी के दीए जलते थे
फ़ूल साथ में दामन उसका थामे चलते थे
धीरे-धीरे घने बाल वे जाते हुए लगे
दोनो आँखो के नीचे दो काले चाँद उगे
आज चलन से बाहर जैसे अम्मा आना पाई है!
पापा को दरवाजे तक वह छोड़ लौटती थी
आंखो में कुछ काले बादल जोड़ वह लौटती थी
गहराती उन रातों में वह जलती रहती थी
पूरे घर में किरन सरीखी चलती रहती थी
जीवन में जो नहीं मिला उन सब की मां भरपाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

बड़े भागते वह तीखे दिन वह धीमी शांत बहा करती थी
शायद उसके भीतर दुनिया कोइ और रहा करती थी
खूब जतन से सींचा उसने फ़सल फ़सल को खेत खेत को
उसकी आंखे पढ़ लेती थी नदी-नदी को रेत रेत को
अम्मा कोई नाव डुबती बार बार उतराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

मां पर लिखी कुछ और कवितायें :

शनिवार, मई 13, 2006

गिनेस बुक में दाखिल अब तक का सबसे बेहतरीन रिकॉर्ड


फ़िलीपींस की राजधानी मनीला में पिछले गुरूवार को एक बेहतरीन रिकॉर्ड बनाने के लिये ३७३८ महिलाओं ने एक जगह एकत्रित हो कर अपने बच्चों को स्तनपान करवाया। यहाँ प्रकाशित लेख के अनुसार फ़िलिपींस में मात्र १६% महिलायें ही अपने बच्चों को स्तनपान करवाती हैं। महिलाओं के इस अभियान से वाकई अगर स्तनपान के प्रति जागृति आती है तो यह अभियान सफ़ल माना जाना चाहिये। मेरे हिसाब से गिनेस बुक में अब तक दाखिल किये गये सबसे बेहतरीन रिकॉर्ड में से यह एक है।

नीचे मेरी पसन्द का एक चित्र भी प्रस्तुत है। यह चित्र सालों से मेरे पर्स में रखा हुआ है, कई लोग अक्सर मुझसे चित्र के लिये पूछते हैं, पर में उन्हें कैसे बताऊं की मेरे लिये या सबके लिये माँ क्या है। वैसे मैने एक संक्षिप्त उत्तर यहाँ देने की कोशिश की है।

बुधवार, मई 10, 2006

चित्र पहेल-४ का हल- लिवींग स्टोन "लिथोप्स"

कोई भी कड़ी नहीं देने के बावजूद भाई लोगों ने बहुत कोशिश की, किसी ने चॉकलेट किसी ने मशरूम तो किसी ने शरीर का कोई अंग बताया परन्तु में आप सबसे माफ़ी चाहुंगा क्यों कि इनमे से एक भी उत्तर सही नही है। हाँ समीर लाल जी ने हर बार की भाँति कुछ कोशिश की उन्होने पहले केक्टस बताया परन्तु पूर्ण विश्वास के साथ नहीं।

जी हाँ यह केक्टस तो नहीं परन्तु यह एक पौधा जरूर है। पत्थर की भांति दिखने वाला यह पौधा दक्षिण अफ़्रीका में बहुतायत रूप से पाया जाता है। इस पौधे का नाम है "लिथोप्स"

ग्रीक भाषा के "लिथो" यानि पत्थर और "आप्स" यानि "कि तरह दिखने वाला"। दो आपस में जुड़े पत्ते वाला यह पौधा रेगिस्तानी इलाकों में पाया जाता है, इस वजह से इसको पानी की आवश्यकता बहुत कम होती है। पहेली में दिखाये गये चित्र की भांति इस के पत्तों पर तरह तरह की डिजायन बनी हुई होती है; जो देखने में बहुत सुन्दर होती है, मानो रंग बिरंगे जवाहरात बिखरे पड़े हों और इसी वजह से इसे "लीवींग स्टोन " भी कहा जाता है। पत्थर की भांति दिखने की वजह से यह जीव जन्तुओं से बचा रहता है और इसी वजह से इस पौधे की उम्र ९० से लेकर १०० साल तक पाई जाती है। नवंबर से मार्च तक इन पौधों पर रंग बिरंगे और खुशबुदार फ़ूल लगते हैं


अब आप गूगल भैया से लिथोप्स कि बारे में ज्यादा जानकारी पुछेंगे तो इस पौधे की विशेषताएं जानकर हैरान रह जायेंगे।
काश कोई ऐसा सर्च इंजन होता जिसमे "दस्तक" के चित्र पहेली के चित्रों को पेस्ट कर ये पता लगाया जा सकता कि ये चित्र किसका हैं तो सागर चन्द नाहर की चित्र पहेली की हवा निकल जाती।
मन्ने तो यान लागे हे सागर के तने अब ब्लोगिंग करता चित्र पहेली ज्यादा "सूट" करे है, क्यूं युगल जी?






मंगलवार, मई 09, 2006

चित्र पहेली - 4

प्रस्तुत है एक और चित्र पहेली, यहाँ दिखाये गये चित्र को पहचानिये; यह क्या है। इस पहेली में कोई कड़ी /हिन्ट नहीं दी जा रही है, नहीं नहीं ...यह पत्थर नहीं है!!!!!!!

शनिवार, मई 06, 2006

रजनीश मंगला जी कि टिप्पणी के बारे में एक सवाल

एडोल्फ़ आईकमान के लेख पर रजनीश मंगला जी की टिप्पणी थी कि कभी कभी में सोचता हुँ कि जर्मनी में रह कर गल्ती तो नहीं कर रहा!" इस बारे मे में रजनीश मंगला जी से पुछना चाहुंगा कि क्या अब भी वहाँ यहूदियों को उसी नज़र से देखा जाता है जिस नज़र से प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच में देखा जाता था?
दूसरी बात यह है कि प्रथम युद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद सम्राट विल्हेम कैसर देश की जनता को विजेता मुल्कों की सेना के हवाले छोड़ कर भाग गये और अत्याचारों का जो सिलसिला विजेता मुल्कों ने जर्मनी की मासूम जनता पर ढ़ाना शुरू किया वह असहनीय था, और उस बुरे समय में जर्मनी के यहूदियों ने उन्हे ब्याज पर पैसे दे कर लूटना शुरू कर दिया था। तब देश की दुखी जनता को उस संकट से उबारने के लिये हिटलर ने विजेता मुल्कों के सामने विद्रोह किया और देश की दुखी जनता को संकट से उबारने की कोशिश की,और फ़िर शुरु हुआ विश्व युद्ध-२।
हिटलर ने विजेता मुल्कों के साथ यहुदियों को भी अपना दुश्मन मान कए उन्हे मरवाना शुरू किया जो जरमनी की हार और उसकी आत्महत्या पर ही जाकर रुका, तब तक ६० लाख यहूदी साफ़ हो चुके थे।
में मानता हुँ कि हिटलर ने अपने जीवन में एक ही सबसे बड़ी भूल बस यही की थी, कि उसने सारे विश्व के यहूदियों को अपना दुश्मन माना; हिटलर की उस भूल को अगर एक बार दरकिनार किया जाय या छोड़ दिया जाय तो सारे विश्व में हिटलर से बड़ा देशभक्त पैदा नहीं हुआ!!
क्या में सही हूँ, आप अपनी राय दें।

शुक्रवार, मई 05, 2006

आज का सबसे दुखद समाचार

आज का सबसे दुखद समाचार हिन्दी फ़िल्मों के प्रख्यात और मेरे सबसे पसंदीदा संगीतकार नौशाद साहब का निधन. नौशाद साहब उन हिन्दी फ़िल्म संगीत की आखिरी कड़ी थे जिनके संगीत निर्देशन में स्व. के.एल. सहगल ने भी गाया था. नौशाद साहब का एक शेर प्रस्तुत हे
अब भी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं
अब भी जीने के बहाने बहुत हैं
गैर घर भीख ना मांगो फ़न की
जब अपने ही घर में खजाने बहुत हैं
है दिन बद-मज़ाकी के "नौशाद" लेकिन
अब भी तेरे फ़न के दीवाने बहुत हैं.

स्व. नौशाद साहब को हार्दिक श्रद्धान्जली, अल्लाह उनकी रूह को सुकुन फ़रमाये

विश्व के सबसे क्रूर जल्लाद एडॉल्फ़ आईकमान की कहानी

द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय और हिटलर के आत्महत्या कर लेने के बाद हिटलर की सेना के सारे जिन्दा बचे बड़े अधिकारी, जर्मनी से भाग गये। उनमें से एक अधिकारी एडॉल्फ़ आईकमान जो कि खास यहुदी जनता को सजा देने के लिये बनायी गयी खास टुकड़ी और गेस्टापो का मुखिया था, और जिसने विश्व युद्ध के दौराने मारे गये ६० लाख यहुदियों में से लगभग ५० लाख यहुदियों (जिनमें बच्चे और महिलायें भी थी) को तो खुद आइकमान ने अपने मार्गदर्शन और अपने सामने मरवाया था।

एसा क्रूर पशु समान इंसान जर्मनी की पराजय के बाद जरमनी से अपनी सारी पहचान मिटा कर भाग कर अर्जेन्टीना में जा छुपा और अर्जेन्टीआ में आईकमान रिकार्डो क्लेमेंट के नाम से रहने और मर्सेडीज बेन्ज़ में एक मामुली मज़दूर का काम करने लगा।

इस्रायल उसे भूला नहीं था और उसे उस के किये कर्मों की सजा देने के लिये मचल रहा था । परन्तु आइकमान शायद भूल गया था कि उस का पाला इस्रायल की जासूसी संस्था मोसाद के शातिर जासूसों से पड़ने वाला है। किस तरह मोसाद के प्रमुख इसर हेरेल ने इस्रायल से हज़ारों किलोमीटर दूर अर्जेन्टीना से उसे इस्रायल ला कर ( अपहरण कर) आईकमान को उसके अपराधों की सजा दिलवायी, बहुत जबरदस्त कहानी है अगर आप एसे वाकई पढ़ना चाहते हैं तो यहाँ, यहाँ और यहाँ देखें पल पल आश्चर्य में डाल देने वाली और मोसाद के जासूसों को चुनौती देने वाली कहानी।यहाँ मोसाद के प्रमुख इसर हेरेल के किताब दी हाऊस ओन गेरीबाल्डी स्ट्रीट यहाँ देखिये।

पॉल पॉट के बारे में फ़िर कभी.....!!

गुरुवार, मई 04, 2006

चित्र पहेली-३ का उत्तर

बहुत अरमानों के साथ चित्र पहेली शुरु की थी पर लगता है कि किसी को इसमें रुचि नहीं है पर जब पहेली पुछ ली तो उसका उत्तर देना आवश्यक है, सो इसका उत्तर दे रहा हुँ पहला चित्र हिटलर के सेनापति एडॉल्फ़ आईकमान का हे और दुसरा चित्र कम्बोडिया के तानाशाह पॉल पॉट का है. अगर आप इनके बारे में ज्यादा जानना चाहते हों तो लिखें या, यहाँ और यहाँ देखें.

शनिवार, अप्रैल 29, 2006

चित्र पहेली -३

चित्र पहेली के इस अंक में जो चित्र यहाँ कुछ चित्र प्रस्तुत है, यह विश्व इतिहास के सबसे क्रुर खलनायकों के है, पहले चित्र में जो खलनायक है उसके लिये एक आदमी की जिन्दगी की कीमत एक बंदूक की गोली से भी सस्ती थी इसलिये इस खलनायक ने अपने अधीनस्थ कार्यकर्ताओं को लोगों को मारने के लिये कुछ दूसरा इन्तजाम करने को कहा। आखिरकार शुरु हुआ लोगो को मारने का सिलसिला इस जल्लाद ने बच्चों और महिलाओं को भी नही बख्शा!!!!!!लाशों पर गहने तो कहाँ से होते अगर कहीं मुँह में सोने का दाँत होता तो उसे उखाड़ने से भी इसके अधीनस्थ नहीं चूकते





दूसरे जल्लाद को देखिये, इसके के बारे में कुछ कहने के बजाय उसकी क्रूरता के कुछ चित्र देखिये इस जल्लाद ने अपना कहा ना मानने वालों की क्या दुर्गती की है देखिये और इसके मरने के बाद खुद इस की पत्नी और इसकी बेटी ने इसकी लाश को पुराने फ़र्नीचर,टायर, कचरे और गोबर से जला दिया


पहचानिये इन्हें कौन है ये ?

सोमवार, अप्रैल 24, 2006

एक और हिन्दी साहित्यिक पत्रिका

हिन्दी प्रशंषकों के लिये खुशखबरी अमरीका से प्रकाशित एक और नयी हिन्दी त्रेमासिक पत्रिका "क्षितिज" और वो भी पी.डी.एफ. फ़ॉरमेट में जिसे डाऊन लोड किया जा सकता है , पढ़िये जनवरी - मार्च का अंक साईज 11.9 एम.बी. एवं पृष्ठ 76 , शायद यह जानकारी आपके लिये पुरानी हो परन्तु मुझे मेल के द्वारा आज ही पता चला इस लिये आपक सबको बता रहा हुँ.

चित्र पहेली-२ का हल: रामप्पा मंदिर


आर्किमिडीज के सिद्धांत के अनुसार पानी में वही वस्तु तैर सकती हे जो अपने वजन जितना पानी हटाये. तो क्या पानी में पत्थर तैर सकता है? नहीं !! क्यों कि पत्थर द्वारा हटाये गये पानी से पत्थर का वजन कई गुना ज्यादा होता है सो वह पानी में डूब जायेगा.
आप सोच रहे होंगे कि मंदिर कि बात में यह आर्किमिडीज का सिद्धांत कहाँ आ गया ? मंदिर और इस सिद्धांत का क्या लेना देना परन्तु शायद नहीं मानेंगे कि इस मंदिर ने आर्किमिडीज के सिद्धांत को गलत साबित कर दिया है. चलिये पूरी बात बताते है.
इस्वी सन १२१३ में वरंगल के काकतिया वंश के महाराजा गणपति देव को एक शिव मंदिर बनाने का विचार आया. उन्होनें अपने शिल्पकार रामप्पा को एसा मंदिर बनाने को कहा जो वर्षों तक टिका रहे. रामप्पा ने की अथक मेहनत और शिल्प कौशल ने आखिरकार मंदिर तैयार कर दिया. जो दिखने में बहुत ही खुबसुरत था, राजा बहुत प्रसन्न हुए और मंदिर का नाम उन्होने उसी शिल्पी के ही नाम पर रख दिया " रामप्पा मंदिर" यह शायद विश्व का एक मात्र मंदिर हे जिसका नाम भगवान के नाम ना होकर उसके शिल्पी के नाम पर है.
कुछ वर्षों पहले लोगो को ध्यान में आया कि यह मंदिर इतना पुराना है फ़िर भी यह टूटता क्यों नहीं जब कि इस के बाद में बने मंदिर खंडहर हो चुके है. यह बात पुरातत्व वैज्ञानिकों के कान में पड़ी तो उन्होने पालमपेट जा कर मंदिर कि जाँच की तो पाया कि मंदिर वाकई अपनी उम्र के हिसाब से बहुत मजबूत है. काफ़ी कोशिशों के बाद भी विशेषज्ञ यह पता नहीं लगा सके कि उसकी मज़बूती का रहस्य क्या है, फ़िर उन्होनें मंदिर के पत्थर के एक टुकड़े को काटा तो पाया कि पत्थर वजन में बहुत हल्का हे, उन्होने पत्थर के उस टुकड़े को पानी में डाला तो वह टुकड़ा पानी में तैरने लगा यानि यहाँ आर्किमिडिज का सिद्धांत गलत साबित हो गया. तब जाकर मंदिर की मज़बूती का रहस्य पता लगा कि और सारे मंदिर तो अपने पत्थरों के वजन की वजह से टूट गये थे पर रामप्पा मंदिर के पत्थरों में तो वजन बहुत कम हे इस वजह से मंदिर टूटता नहीं.
अब तक वैज्ञानिक उस पत्थर का रहस्य पता नहीं कर सके कि रामप्पा यह पत्थर लाये कहाँ से क्यों कि इस तरह के पत्थर विश्व में कहीं नहीं पाये जाते जो पानी में तैरते हों. तो फ़िर क्या रामप्पा ने 800 वर्ष पहले ये पत्थर खुद बनाये? अगर हाँ तो वो कौन सी तकनीक थी उनके पास!! वो भी 800-900 वर्ष पहले!!!!!
रामप्पा या राम लिंगेश्वर मंदिर आन्ध्र प्रदेश के वरंगल से 70कि. मी दूर पालम पेट में स्थित है. यह मंदिर 6 फ़ीट ऊँचे मंच ( प्लेट फ़ार्म) पर बना हुआ है,इस मंदिर के बारे में ज्यादा जानकारी यहाँ मिल सकती है.

रविवार, अप्रैल 23, 2006

चित्र पहेली-2 कड़ी-2


लंका कांड से मेरा आशय यह था कि श्री राम जब पुल बनवाते हैं तो उस समय कुछ ऎसी बात होती है जो विज्ञान को चुनौती देती है . वैसे लंका कांड से इस मंदिर का कुछ लेना देना नहीं है. और यह मंदिर तो वैसे भी मात्र 900 वर्ष पुराना है, चलिये दुसरी कड़ी देता हुं कि इस मंदिर ने आर्किमिडिज के एक सिद्धांत को गलत साबित कर दिया है. साथ ही इस मंदिर का दुसरा फ़ोटो भी दे रहा हुँ.

शनिवार, अप्रैल 22, 2006

चित्र पहेली २





चलिये जब पहेलियों की बात चली है तो एक चित्र पहेली और आपके लिये,यहाँ प्रस्तुत चित्र एक दक्षिण भारतीय मन्दिर का है, इस मन्दिर कि विशेषता यह है कि..................नहीं, जब विशेषता बता दी तो फ़िर पहेली क्या रही, और हाँ पिछली बार जो गल्ती हुई वो इस बार नहीं दोहराऊँगा. फोटो पर माऊस रखने से इस बार मन्दिर का नाम पता नही चलेगा जैसे पिछली बार सभी सावित्री बाई का नाम जान गए थे.
कड़ी : रामायण के लंका काण्ड में एक प्रसंग है जब भगवान श्री राम श्री रामेश्वरम से लंका तक पुल बनाने के बारे में सोचते हैं........और हाँ यह मंदिर लगभग 900 वर्ष पहले बना था. बस इतना हिन्ट काफ़ी है, क्यों ठीक है ना.........?आजकल टिप्पणियाँ धीरे धीरे काफ़ी कम होती जा रही है, चिठ्ठे अच्छे या बुरे हों, अच्छी या खराब टिप्पणी तो दें.

गुरुवार, अप्रैल 20, 2006

अटल जी से पेन मांगना


कभी कभी जिन्दगी में ऎसे मौके आते है जब हम उन मौकों का लाभ नहीं उठा पाते फ़िर जिन्दगी भर पछताते रहते हैं. ऎसा ही एक बार मेरे साथ हुआ था, बात उन दिनों की है जब मैं सुरत में रह रहा था. एक दिन जब तापी (ताप्ती ) नदी पर बने सरदार पुल का उदघाटन करने के लिये माननीय अटल जी वहाँ आये थे,अटल जी मेरे आदर्श हुआ करते थे,( आज भी हैं, मैं सोचता हुँ कि उन्होने सबसे बड़ी गल्ती प्रधान मंत्री पद लेकर की ) उदघाटन और उनके भाषण के पुरे होने के बाद में उनके ओटोग्राफ़ लेने के लिये भीड़ को चीर कर उनके पास पहुँचा और अटल जी को ओटोग्राफ़ पुस्तिका दी तो उन्होने मेरी जेब से पेन निकाल कर पुस्तिका में हस्ताक्षर दे दिये,(ध्यान दें पेन २/- मूल्य का स्टिक वाला था). उन्होने मुझे पुस्तिका वापस दी और पेन अपनी जेब में रख दिया में भूल गया कि में किसके सामने खड़ा हुँ, में वहीं कुछ सोचते हुए खड़ा रह गया तब अटल जी ने मुझसे पुछा क्या हुआ? और मेरे मुँह से पता नही कैसे निकल गया "सर मेरा पेन आपके पास रह गया", तो अटल जी ने हँसते हुए अपनी जेब से पेन निकाल कर मेरी जेब मे रख दिया और मेरी पीठ थपथपाई.
आज जब भी वह बात याद आती है तो बड़ा अफ़सोस होता है कि मेंने उनसे एक २/- का पेन भी फ़िर से माँग लिया.अगर आप लोगों के साथ भी एसा ही कुछ वाकया हुआ हो तो बतायें

रविवार, अप्रैल 16, 2006

क्रिकेट

हम राजनीती पर जब भी चर्चा करते हैं तो हमारा विषय यह होता है कि राजनीती में युवाओं को आगे आना चाहिये या युवाओं को मौका देना चाहिये पर जब भी क्रिकेट की बात आती है तो हम सचिन और सौरव का गुणगान करने लगते है चाहे वो अच्छा खेल पा रहे हो या नहीं.
इंगलैण्ड के साथ खेले गये मैच के साथ ही इस श्रंखला के सारे मैचों में (एक को छोड कर) भारत की विजय के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि भारत के पास अभी कई और प्रतिभावान खिलाड़ी हैं , अब हमे सौरव, सचिन और सहवाग की जगह महेन्द्र सिंह धोनी, इरफ़ान पठान,मुनाफ़ पटेल, श्री संत, रॉबिन उत्तपा जैसे और योग्य खिलाडीयों पर ध्यान और उन्हें मौका देना चाहिये.
हम जानते हैं कि क्रिकेट के लिये सचिन, सौरव और सहवाग बहुत कुछ किया है परन्तु अब हम उनके पुराने प्रदर्शन को हम ले कर बैठ नहीं सकते, इन खिलाड़ियों को टीम से बाहर निकाला जाय, उसकी बजाय खुद इनको ही क्रिकेट से सन्यास ले लेना चाहिये.
सौरव की इतनी नाकामी के बाद लोगों का एक बड़ा वर्ग सौरव को टीम में शामिल किये जाने का पक्षधर है,जो रणजी मैचों में भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं. सचिन और सहवाग भी अब थक चुके हैं, अपने आप को इतने हँसी का पात्र बनाने की बजाय कपिल देव,सुनील गावस्कर और सिध्धु की भाँति अपनी कारगिर्दी के शीर्ष पर रहते हुए क्रिकेट से सन्यास ले लेते तो उनका बड़्प्पन होता, परन्तु सौरव ने इतनी सफ़लता के बाद अपनी हालत एक नवोदित खिलाड़ी जैसी कर ली है जो इस आस पर बैठा हे कि मुझे इस मैच में, नहीं तो अगले मैच में टीम में शामिल किया जायेगा. इतने अच्छे खिलाड़ी ने अपनी कैसी दयनीय हालत बना ली है,सचिन का हाल भी कुछ ऐसा ही है और सहवाग तो जिनसे टीम को बहुत उम्मीदें रहती है वह कितने समय से कुछ नही कर पा रहे है.

शुक्रवार, अप्रैल 14, 2006

आरक्षण पर एक अनुभवी चिठ्ठाकार के विचार

आरक्षण पर आज एक अनुभवी चिठ्ठाकार के विचार पढ़ कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई.यानि आप भी आरक्षण को सही मानते हैं, आरक्षण होना ही चाहिये चाहे वो योग्य उम्मीदवारों की बलि लेकर ही क्यों न हो, चाहे अयोग्य पर अनुसुचित जाति- जनजाती के उम्मीदवारों में अनुभव हीनता ही क्यों ना हो, एसी ही सोच की वजह से इस देश के योग्य छात्र विदेश पलायन कर रहे हें, ना.......... पर हमे इस बात से क्या? हमें तो उनको सर माथे पर बिठाना है जिन्हे काम करना ढंग से आता भी हो या नहीं,
आप लिखते हैं उन्होने हर संभव कोशिश की कि अर्जुन सिन्ह को खलनायक साबित किया जाय, यानि आप के लिये वे आदर्श हें जिन्होने देश में सवर्ण और असवर्ण के बीच में भेद भाव करवाया. एक जगह आप ने चुनाव आयुक्तों के लिये लिखा कि "चुनाव आयोग के ईमानदार आयुक्तों " मानों चुनाव आयोग के सारे आयुक्त सीधे स्वर्ग से उतर कर आये हैं, वे ईमानदार के सिवा कुछ हो ही नही सकते.
आपने लिखा समाचार चैनलों और अख़बारों द्वारा ‘योग्यता’ के पक्ष में मुखर स्वरों की खोज करने के लिए जिस तरह से कैमरामैन और पत्रकारों की टीम चुनिंदा जगहों पर भेजी गई और उन्हें एकपक्षीय और पक्षपाती ढंग से प्रस्तुत किया गया, उससे भी अधिक शर्मनाक था इस विषय पर परिचर्चाओं का संचालन। इस तरह की सभी परिचर्चाओं का संचालन निरपवाद रूप से सवर्ण पत्रकारों द्वारा किया गया। यानि उन्होनें अगर आरक्षण के विरोध की बजाय समर्थन के बारे में कहा होता तो सही होता, तब यह पक्षपात थोड़े ही होता क्यों कि तब तो बात पिछड़े लोगो की हो रही होती और पिछड़े तो आप की नज़र मैं पैदाईशी देवदूत होते हैं उन्हे किसी भी हाल में आरक्षण मिलना ही चाहिये चाहे योग्य सवर्ण भीख ही क्यों ना मांगे.
आपने सारे पत्रकार जगत को गलत साबित करने की कोशिश की, अगर सवर्ण ( ये आप सोचते है कि वे सारे सवर्ण ही थे, ये भेदभाव पत्रकारों के मन में नहीं होता) पत्रकारों की बजाय वहाँ आरक्षण समर्थक पत्रकार वहाँ होते तो बड़े खुश होते आप क्यों कि अयोग्य उम्मीदवारों के समर्थन में बोलने वाला कोई तो होता
आपने लिखा इस देश में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के पक्षधरों की संख्या उसके विरोधियों की संख्या से कम से कम चौगुनी है। लेकिन इन स्वनामधन्य पत्रकारों को पूरे देश में आरक्षण के पक्ष में बोलने वाला प्रतिभाशाली व्यक्ति खोजने से भी नहीं मिला। उनकी नज़रों में पिछड़े वर्ग के सारे लोग ही प्रतिभाहीन थे।यानि आपके हिसाब से आरक्षण उन लोगों ही मिलना चाहिये जिसके समर्थक उसके विरोधियों से कम से कम दुगुने- चौगुने हो, योग्यता कोई मायने नही रखती आपके लिये.
इस देश की बुरी हालत का जिम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ आरक्षण है, भ्रष्टाचार का क्रमांक तो उससे कहीं पीछे है.
आदरणीय जीतु भाई के लेख में कई लोगों ने अर्जुन सिंह को जम कर कोसा परन्तु मेरे जीवन में धर्म का महत्व प्रतियोगिता में किसी माई के लाल ने छाती ठोक के यह कहने की हिम्मत की कि हां हमे हमारा धर्म प्यारा है, सबने अपने धर्म को ही कोसा, जब तक हम हिन्दु धर्म को गाली देने की आदत को नहीं बदलेंगे अर्जुन सिंह (अर्जुन काहे का इस बदमाश को शिखंडी कहना भी उस महान योद्धा का अपमान होगा) जैसे लोग अल्पसंख्यकों और मुस्लिम लोगो में दीवार खड़ी करते रहेंगे, वो दिन दूर नही जब योग्य छात्र भीख मांगेगे और आरक्षण की वजह से अयोग्य लोग सारी जगहों पर बैठे होंगे और बैठे हैं भी, हम अक्सर रैल्वे और दुसरी जगहों पर देखते हैं कि जिन लोगो को ढंग से कम्प्युटर चलाना नहीं आता वे लोग अपनी गलतियों पर बाबु बन कर लोगो को हड़काते रहते हैं.
यह लड़ाई आरक्षण की नही योग्यता और अयोग्यता की है, कम से कम हमें तो योग्यता का साथ देना चाहिये चाहे वो सवर्ण हो या असवर्ण; और यही आरक्षण का पैमाना होना चाहिये
अब भी कुछ देर नही हुई जागो......

सोमवार, अप्रैल 10, 2006

भारतीय संस्कृती के समर्थकों का अंग्रेज़ी प्रेम

लिखने से पहले ही स्पष्ट करना चाहुंगा कि मेरा उद्धेश्य किसी का अपमान करना नहीं हे परन्तु कहे बिना रहा भी नही जाता. योग और अध्यात्म के विषय में इन दिनो देश के दो महान योगी श्री स्वामी रामदेव और श्री श्री रवि शंकर जी जो भारतीय संस्कृति ओर भारतीयता के बारे में दिन रात प्रचार कर रहे हैं. यहां वहां शिविर आयोजित कर देश की जनता का स्वास्थय सुधार रहे हैं ( स्वयं मैने इन दोनो से स्वास्थय लाभ लिया एवं ध्यान करना सीखा है) परन्तु अखरने वाली बात यह है कि इन दोनो संस्थाओं क्रमशः दिव्य योग एवं आर्ट ओफ़ लीवींग की अधिकारिक वेब साईट अभी तक हिन्दी भाषा में नही बनी है, जब की अमेरीका जाकर ध्यान सिखाने वाले एक ओर महान दार्शनिक ओशो की साईट हिन्दी के अलावा अन्य १२ विदेशी भाषाओं में है.

शनिवार, अप्रैल 08, 2006

सावित्री बाई खानोलकर लेख - 2


विवाह के बाद सावित्री बाई ने पुर्ण रुप से भारतीय संस्कृति को अपना लिया, हिन्दु धर्म अपनाया, महाराष्ट्र के गाँव-देहात में पहने जाने वाली 9 वारी साड़ी पहनना शुरु कर दिया ओर 1-2 वर्ष में तो सावित्री बाई शुद्ध मराठी ओर हिन्दी भाषा बोलने लगी; मानों उनका जन्म भारत में ही हुआ हो, (आज हाल यह है कि भारत में जन्मी और हिन्दी फ़िल्मों मे अभिनय कर पैसा कमाने वाली अभिनेत्रियों को हिन्दी बोलना नहीं आता या जिन्हें आता उन्हे हिन्दी बोलने में शर्म आती है).
कैप्टन विक्रम अब मेजर बन चुके थे और जब उनका तबादला पटना हो गया ओर सावित्री बाई को एक नयी दिशा मिली, उन्होने पटना विश्वविध्यालय में संस्कृत नाटक, वेदांत, उपनिषद और हिन्दु धर्म पर गहन अध्ययन किया. ( रवि कामदार जी पढ़ रहे हैं ना), इन विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत हो गयी कि वे स्वामी राम कृष्ण मिशन में इन विषयों पर प्रवचन देने लगीं, सावित्री बाई चित्रकला और पैन्सिल रेखाचित्र बनाने भी माहिर थी तथा भारत के पौराणिक प्रसंगों पर चित्र बनाना उनके प्रिय शौक थे. उन्होने पं. उदय शंकर ( पं. रवि शंकर के बड़े भाई )से नृत्य सीखा, यानि एक आम भारतीय से ज्यादा भारतीय बन चुकी थी. उन्होने Saints of Maharashtra एवं Sanskrit Dictonery of Names नामक दो पुस्तकें भी लिखी.
मेजर विक्रम अब लेफ़्टिनेन्ट कर्नल बन चुके थे, भारत की आज़ादी के बाद 1947 में भारत पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए बहादुर सैनिकों को सम्मनित करने के लिये पदक की आवश्यकता महसूस हुई.मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल ने पदकों के नाम पसन्द कर लिये थे परमवीर चक्र, महावीर चक्र ओर वीर चक्र. बस अब उनकी डिजाईन करने की देरी थी, मेजर जनरल अट्टल को इस के लिये सावित्री बाई सबसे योग्य लगी, क्यों कि सावित्री बाई को भारत के पौराणिक प्रसंगों की अच्छी जानकारी थी, ओर अट्टल भारतीय गौरव को प्रदर्शित करता हो ऐसा पदक चाहते थे, सावित्री बाई ने उन्हें निराश नही किया और ऐसा पदक बना कर दिया जो भारतीय सैनिकों के त्याग और समर्पण को दर्शाता है.
सावित्री बाई को पदक की डिजाईन के लिये इन्द्र का वज्र सबसे योग्य लगा क्यों कि वज्र बना था महर्षि दधीची की अस्थियों से, वज्र के लिये महर्षि दधीची को अपने प्राणों तथा देह का त्याग करना पडा़. महर्षि दधीची की अस्थियों से बने शस्त्र वज्र को धारण कर इन्द्र वज्रपाणी कहलाये ओर वृत्रासुर का संहार किया.
पदक बनाया गया 3.5 से.मी का कांस्य धातु से और संयोग देखिये सबसे पहले पदक मिला किसे? सावित्री बाई की पुत्री के देवर मेजर सोमनाथ शर्मा को जो वीरता पुर्वक लड़ते हुए 3 नवंबर 1947 को शहीद हुए. उक्त युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी ने 300 पकिस्तानी सैनिकों का सफ़ाया किया, भारत के लगभग 22 सैनिक शहीद हुए और श्रीनगर हवाई अड्डे तथा कश्मीर को बचाया.
मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी शहादत के लगभग 3 वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को यह पदक प्रदान किया गया (इतनी देरी क्यों हुई अगर पाठकों को पता चलेगा तो तत्कालीन सरकार के कायर नेताओं पर बड़ा गुस्सा आयेगा, इस की कहानी फ़िर कभी, अगर पाठक चाहें तो )
मेजर जनरल विक्रम खानोलकर के 1952 में देहांत हो जाने के बाद सावित्री बाई ने अपने जीवन को अध्यात्म की तरफ़ मोड लिया, वे दार्जिलिंग के राम कृष्ण मिशन में चली गयी. सावित्री बाई ने अपनी जिन्दगी के अन्तिम वर्ष अपनी पुत्री मृणालिनी के साथ गुजारे ओर 26 नवम्बर 1990 को उनका देहान्त हुआ.
यह कैसी विडम्बना है कि सावित्री बाई जैसी महान हस्ती के बारे में आज स्कूलों या कॉलेजों के अभ्यासक्रमों में नहीं पढ़ाया जाता, अनतर्जाल पर उनके बारे में कोइ खास जानकारी उपलब्ध नहीं है. (लेख लिखते समय कोशिश की गयी कि कहीं कोइ गलती ना हो फ़िर भी संभव है, उसके लिये पाठकों ओर सदगत सावित्री बाई से क्षमा याचना. अगर कोइ जानकारी जो यहाँ ना लिखी गयी हो, और पाठक जानते हों तो जरूर अवगत करावें, धन्यवाद) परमवीर चक्र के बारे में ज्यादा जानकारी यहाँ मौजूद है

शुक्रवार, अप्रैल 07, 2006

चित्र पहेली का सही जवाब: सावित्री बाई खानोलकर

यह चित्र " इवा वान लिन्डा मेडे- डी-रोज़ की है, जैसा कि समीर लाल जी ने बताया, हंगरियन पिता और रशियन माता की स्विस पुत्री इवा का जन्म 20 जुलाई 1913 को स्विटज़रलेन्ड में हुआ. इवा के जन्म के तुरन्त बाद इवा की माँ का देहान्त हो गया.
15-16 वर्ष की उम्र में इवा को माँ की कमी खलने लगी ओर ठीक उन्ही दिनों ( सन 1929) ब्रिटेन की सेन्डहर्स्ट मिलिटरी कॉलेज के एक भारतीय छात्र विक्रम खानोलकर ऑल्पस के पहाड़ों पर छुट्टी मनाने ओर स्कीइंग करने पहुँचे.
जैसा होता आया है, विक्रम ओर इवा का परिचय हुआ, विक्रम ने इवा को भारतीय संस्कृति तथा इवा के मन को शान्ति मिले इस तरह की बातें बताई, विक्रम ओर इवा किसी को सपने में भी ख़्याल नहीं था कि नियती उन के साथ क्या खेल खेलने वाली है! छुट्टियां पुरी होने पर दोनों अपने अपने घर लौट गए.
पढ़ाई पुरी करने के बाद विक्रम भारत लौटे ओर भारतीय सेना की 5/11वीं सिख बटालियन से जुड़ गये. अब उनका नाम था कैप्टन विक्रम खानोलकर. उनकी सबसे पहली पोस्टिंग ओरंगाबाद में हुई. इवा के साथ उनका पत्राचार अभी तक जारी था, एक दिन इवा का पत्र मिला कि वो हमेशा के लिये भारत आ रही है, ओर वाकई इवा भारत आ पहुँची. इवा ने भारत आते ही विक्रम को अपना निर्णय बता दिया कि वह उन्हीं से शादी करेगी. घर वालों के थोड़े विरोध के बाद सभी ने इवा को अपना लिया और 1932 में महाराष्ट्रियन रिवाजों के साथ इवा ओर विक्रम का विवाह हो गया. विवाह के बाद इवा का नया नाम रखा गया सावित्री, ओर इन्हीं सावित्री ने सावित्री बाई खानोलकर के नाम से भारतीय सैन्य इतिहास की एक तारीख रच दी.
(क्रमशः)

गुरुवार, अप्रैल 06, 2006

चित्र पहेली



आज कल सोनिया जी के त्याग की बड़ी चर्चा चल रही है, अब यह त्याग था या ओर कुछ ओर इस बात की चर्चा हम यहाँ नहीं करेंगे, परन्तु सोनिया जी की ही तरह जन्म से विदेशी एक भारतीय महिला का एक दुर्लभ चित्र यहाँ प्रस्तुत है, इनका भारतीय इतिहास में बहुत बड़ा योगदान है, क्या आप इन को पहचानते है? इन के बारे में अगला लेख शीघ्र लिख रहा हुँ तब तक आप इन को पहचानें ओर बताये यह महिला कौन है? ओर भारत के इतिहास में इन का क्या योगदान है?

मंगलवार, अप्रैल 04, 2006

अन्धविश्वास और अज्ञानता की परकाष्ठा

हमारे बचपन में लोगो में लोगों में भगवान के नाम से छपे पर्चें बाँटने का एक क्रेज़ हुआ करता था, राम, कृष्ण, तिरुपती बालाजी ओर ना जाने कौन कौन से भगवान, वैसे साँई बाबा ओर हनुमान जी तो उन के मुख्य नायक हुआ करते थे. पर्चों में लिखा होता था,... एक दिन एक मन्दिर में पुजारी पूजा कर रहा था, अचानक वहाँ एक साँप निकला ओर उसने पुजारी से कहा ( हाँ भाइ वह साँप मनुष्य के स्वर में बोला था) मै फ़िर से अवतार लेने वाला हुँ आदि आदि... फ़लाँ ने ५०० पर्चे छपवा कर बाँटे तो उसे पचास हजार की लाटरी लगी, फ़लाँ ने पर्चे को फ़ाड दिया तो कुछ ही दिनों में उसका इकलौता बेटा मर गया, अमुक ने पर्चा छपवाने में देरी की तो उसे व्यवसाय में घाटा हुआ, आप भी इसी तरह 200 या 500 पर्चे छपवा कर वितरित करे तो आने वाले १४ दिनों में आपको आर्थिक लाभ होगा (कुछ तो गारंटी भी देते थे), अन्यथा आपको भी फ़लाँ की तरह नुकसान हो सकता है, हम आसानी से समझ सकते हैं कि वह प्रिन्टिंग प्रेस वालों की चालें हुआ करती थी. ज़माना बदला, जेरॉक्स मशीनें आयी उन लोगों ने भी इस काम को खुब बढ़ाया, फ़िर मोबाइल फ़ोन का नंबर आया ओर आजकल अन्तर्जाल पर यह काम चल रहा है, ज्यों ही याहू मैसेन्जर लोगिन करो ओफ़लाइन मैसेज तैयार, इस एस एम एस को १० लोगो को फ़ोरवर्ड करो ओर ५ दिन में फ़ायदा पाओ, मेल चेक करो तो वहाँ भी दो चार भगवान तैयार....किस हद तक अज्ञानता? कहाँ ले जायेगा यह अन्धविश्वास. हद तो तब होती है जब मेरे साईबर कॉफ़े मे लोग मुझसे कहते मुझे यह नहीं वह कम्प्युटर दो वह मेरे लिये लकी है, हसीँ भी आती है और पढे लिखे लोगों ( कुछ तो एम.सी.ए डिग्री वाले भी हैं ) पर गुस्सा भी आता है, कुछ कह नही सकते. हुआ युं कि किसी ने परीक्षा का परिणाम किसी कम्प्युटर पर देखा तो वह पास हुआ ओर अगले सेमेस्टर का परिणाम दुसरे कम्प्युटर पर देखा ओर भाई साब अनुत्तीर्ण हो गये तो सारा दोष बिचारे कम्प्युटर का कि वह अनलकी है.
मैने आज तक कई पर्चों को फ़ाड़ा है, किसी एस एम एस का या ओफ़लाईन मैसेज का उत्तर नही दिया,बिल्ली के रास्ता काटने पर भी कई बार घर से बाहर निकला हुँ पर आज तक मेरा कुछ नही हुआ. क्या राय है आपकी मैं सही कर रहा हुं या गलत ?

रविवार, अप्रैल 02, 2006

मेरे जीवन में धर्म का महत्व



कई चिठ्ठाकारों के धर्म पर विचार पढ़ कर धर्म पर लिखने का मन हुआ है, दर असल धर्म की कोई परिभाषा हो ही नही सकती, क्यों कि हर परिस्थिती, जगह ओर समय के अनुसार धर्म की परिभाषायें बदलती रहती है.
में मानता हुँ कि धर्म की सही परिभाषा है "मानवता", और धर्म का मतलब हमारे देश ओर समाज की उन्नती से होना चाहिये. शायद आप इसे "अपने मुँह मियाँ मिठ्ठु बनना" कह सकते हैं परन्तु मैने आज तक इस धर्म को निभाया है, ओर हर इन्सान किसी ना किसी रूप में अपने धर्म का निर्वाह करता ही है .
मैं जन्म से जैन हुँ और मुझे जैन मेरा धर्म बहुत पसन्द है मेरी इच्छा है कि मैं हर जन्म में जैन के रूप में ही जन्म लूँ. अब मुझे मेरा धर्म इस वजह से ही पसन्द नही है कि इसमें भगवान महावीर हुए थे, मुझे मेरा धर्म इसके सिद्धान्तों की वजह से बहुत पसन्द है, आप ही सोचिये सत्य ओर अहिंसा में क्या बुराई है.
जैन एक एसा धर्म है जिसे अपनाने के लिये जैन घर में पैदा होना जरूरी नही होता, मात्र इसके सिद्धान्तों को अपनाने मात्र से जैन हुआ जा सकता है.मैं एक चुस्त जैन की भाँति जैन पूजा पाठ नही करता, सामायिक करने का सही तरीका मुझे नही आता, सुहैब के माताजी ओर पिताजी की ही तरह मेरे माताजी ओर पिताजी भी मुझे अक्सर सामायिक करने ओर साधु सन्तों के दर्शन करने को बाध्य करते है ओर मे उन्हे नाराज़ नही करता, पत्नि त्योहारों (खासकर होली ओर बुजुर्गो की पुण्य तिथियोँ ) पर मुझे उन्हे धूप देने ( मारवाडी समाज मे भगवान की पूजा का एक तरीका जिसमें जलते अंगारों पर घी ओर घर मे बनी मिठाईयाँ रख दी जाती है) को कहती है, मुझे सही तरीका नही आता और में यह भी, जानता हुँ कि यह सब आडम्बर है पर मे उन्हें खुश रखने की कोशिश करता हुँ, क्या यह धर्म नही है कि आप अपने माता -पिता, पत्नी ओर परिवार को अपने कार्यों से खुश रखो.
मैं एक आम भारतीय की भाँति अपने देश, अपने परिवार ओर अपने समाज से बहुत प्रेम करता हुँ जहाँ मेने मानवता का धर्म सीखा. मुझे एसे लोगो से चिढ़ है जिन्हें हर बात में नुक्स निकालने की आदत होती है ओर अपने बै-सिर पैर के तर्कों से कभी धर्म तो कभी समाज को बदनाम करते रहते है, शायद यह भी मेरा एक धर्म है.
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मंगलवार, मार्च 28, 2006

हिन्दी मे सुधार के लिये एक सुझाव

हिन्दी भाषा में सुधार के लिये अहमदाबाद के अजय दयालजी (दयाळजी) देसाई ने अपने विचार एवं सुझाव विकीपिडीया के हाल की घटनायें वाले कॉलम में तथा अपनी साईट पर एक लेख लिखा है, पढने लायक है (??? ) कहीं कहीं तो उनके सुझावों पर हँसी आती है, उनका सबसे पहला सुझाव है कि अक्षरों के उपर से लाईन निकाल देनी चाहिये ....आगे आप खुद ही पढ़िये.

रविवार, मार्च 12, 2006

इस तस्वीर को पहचानो


क्या आप इस तस्वीर को पह्चानते है? यह तस्वीर भारत के उन महान वेज्ञानिक की है जिन्होने सुचना ओर सँचार क्रान्ति के लिये एक महत्वपुर्ण खोज की परन्तु उस शोध का श्रेय आज दुनिया किसी ओर वेज्ञानिक को देती है,......नही पहचाना ना!!
यह तस्वीर डा.(सर) जगदीश चन्द्र बोस की हे जिन्होने रेडियो एवँ ट्रान्समीटर की खोज की परन्तु उस शोध का श्रेय मारकोनी को मिला.
यह तस्वीर 1897 मे कलकत्ता के टाउन हाल मे उस वक्त खीची गई तब डा बोस अपने वायरलेस यन्त्र का प्रदर्शन कर रहे थे. समारोह के मुख्य अथिती थे बन्गाल के गवर्नर जनरल सर एलकसन्डर मेकेन्ज़ी. उस समारोह मे डा बोस ने सफलतापुर्वक अपनी खोज को प्रदर्शित किया.
30 नवम्बर 1858 को बँगाल के मेमनसिन्घ मे जन्मे डा बोस ने ट्रांसमीटर ओर रेडियो के अलावा पेड पौधों पर भी कई शोध की, उन्होने ही सबसे पहले दुनिया को बताया कि पेड पौधों को अगर नियमित सँगीत सुनाया जाये तो वे ज्यादा तेजी से बढते हे ओर उन पर फल फुल भी ज्यादा लगते हे.
1898 मे डा बोस ने अपने बनाये हुए टेलीग्राफ़ यन्त्र को ईन्ग्लेन्ड की रोयल सोसायटी को बताया, प्रयोग किया ओर यन्त्र भेट किया परन्तु पेटेन्ट लेने की कोशिश नही की, क्यो कि कोई भी खोज उनके लिये पैसा एकत्रित करने का माध्यम नही था, यहाँ तक कि उन्होने कविवर गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर को पत्र लिखा कि " युरोप के कई धनी लोग मुझे मेरे अविष्कार के लिये मेँ जितना धन चाहुँ उतना देने के लिये तैयार है परन्तु मुझे प्रसिध्धी ओर धन मे रुचि नही हे ". यह बात मारकोनी को पता चली जो कि ट्रान्समीटर बनाने की कई असफल कोशिश कर चुके थे, मार्कोनी ने डा बोस की डिजाईन से थोडा सा फरक रख कर रेडियो को पेटेन्ट करवा लिया. इससे मारकोनी को रेडियो के शोधक के रुप मे प्रसिद्धि मिली परन्तु डा बोस को.......???