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शनिवार, अप्रैल 29, 2006

चित्र पहेली -३

चित्र पहेली के इस अंक में जो चित्र यहाँ कुछ चित्र प्रस्तुत है, यह विश्व इतिहास के सबसे क्रुर खलनायकों के है, पहले चित्र में जो खलनायक है उसके लिये एक आदमी की जिन्दगी की कीमत एक बंदूक की गोली से भी सस्ती थी इसलिये इस खलनायक ने अपने अधीनस्थ कार्यकर्ताओं को लोगों को मारने के लिये कुछ दूसरा इन्तजाम करने को कहा। आखिरकार शुरु हुआ लोगो को मारने का सिलसिला इस जल्लाद ने बच्चों और महिलाओं को भी नही बख्शा!!!!!!लाशों पर गहने तो कहाँ से होते अगर कहीं मुँह में सोने का दाँत होता तो उसे उखाड़ने से भी इसके अधीनस्थ नहीं चूकते





दूसरे जल्लाद को देखिये, इसके के बारे में कुछ कहने के बजाय उसकी क्रूरता के कुछ चित्र देखिये इस जल्लाद ने अपना कहा ना मानने वालों की क्या दुर्गती की है देखिये और इसके मरने के बाद खुद इस की पत्नी और इसकी बेटी ने इसकी लाश को पुराने फ़र्नीचर,टायर, कचरे और गोबर से जला दिया


पहचानिये इन्हें कौन है ये ?

सोमवार, अप्रैल 24, 2006

एक और हिन्दी साहित्यिक पत्रिका

हिन्दी प्रशंषकों के लिये खुशखबरी अमरीका से प्रकाशित एक और नयी हिन्दी त्रेमासिक पत्रिका "क्षितिज" और वो भी पी.डी.एफ. फ़ॉरमेट में जिसे डाऊन लोड किया जा सकता है , पढ़िये जनवरी - मार्च का अंक साईज 11.9 एम.बी. एवं पृष्ठ 76 , शायद यह जानकारी आपके लिये पुरानी हो परन्तु मुझे मेल के द्वारा आज ही पता चला इस लिये आपक सबको बता रहा हुँ.

चित्र पहेली-२ का हल: रामप्पा मंदिर


आर्किमिडीज के सिद्धांत के अनुसार पानी में वही वस्तु तैर सकती हे जो अपने वजन जितना पानी हटाये. तो क्या पानी में पत्थर तैर सकता है? नहीं !! क्यों कि पत्थर द्वारा हटाये गये पानी से पत्थर का वजन कई गुना ज्यादा होता है सो वह पानी में डूब जायेगा.
आप सोच रहे होंगे कि मंदिर कि बात में यह आर्किमिडीज का सिद्धांत कहाँ आ गया ? मंदिर और इस सिद्धांत का क्या लेना देना परन्तु शायद नहीं मानेंगे कि इस मंदिर ने आर्किमिडीज के सिद्धांत को गलत साबित कर दिया है. चलिये पूरी बात बताते है.
इस्वी सन १२१३ में वरंगल के काकतिया वंश के महाराजा गणपति देव को एक शिव मंदिर बनाने का विचार आया. उन्होनें अपने शिल्पकार रामप्पा को एसा मंदिर बनाने को कहा जो वर्षों तक टिका रहे. रामप्पा ने की अथक मेहनत और शिल्प कौशल ने आखिरकार मंदिर तैयार कर दिया. जो दिखने में बहुत ही खुबसुरत था, राजा बहुत प्रसन्न हुए और मंदिर का नाम उन्होने उसी शिल्पी के ही नाम पर रख दिया " रामप्पा मंदिर" यह शायद विश्व का एक मात्र मंदिर हे जिसका नाम भगवान के नाम ना होकर उसके शिल्पी के नाम पर है.
कुछ वर्षों पहले लोगो को ध्यान में आया कि यह मंदिर इतना पुराना है फ़िर भी यह टूटता क्यों नहीं जब कि इस के बाद में बने मंदिर खंडहर हो चुके है. यह बात पुरातत्व वैज्ञानिकों के कान में पड़ी तो उन्होने पालमपेट जा कर मंदिर कि जाँच की तो पाया कि मंदिर वाकई अपनी उम्र के हिसाब से बहुत मजबूत है. काफ़ी कोशिशों के बाद भी विशेषज्ञ यह पता नहीं लगा सके कि उसकी मज़बूती का रहस्य क्या है, फ़िर उन्होनें मंदिर के पत्थर के एक टुकड़े को काटा तो पाया कि पत्थर वजन में बहुत हल्का हे, उन्होने पत्थर के उस टुकड़े को पानी में डाला तो वह टुकड़ा पानी में तैरने लगा यानि यहाँ आर्किमिडिज का सिद्धांत गलत साबित हो गया. तब जाकर मंदिर की मज़बूती का रहस्य पता लगा कि और सारे मंदिर तो अपने पत्थरों के वजन की वजह से टूट गये थे पर रामप्पा मंदिर के पत्थरों में तो वजन बहुत कम हे इस वजह से मंदिर टूटता नहीं.
अब तक वैज्ञानिक उस पत्थर का रहस्य पता नहीं कर सके कि रामप्पा यह पत्थर लाये कहाँ से क्यों कि इस तरह के पत्थर विश्व में कहीं नहीं पाये जाते जो पानी में तैरते हों. तो फ़िर क्या रामप्पा ने 800 वर्ष पहले ये पत्थर खुद बनाये? अगर हाँ तो वो कौन सी तकनीक थी उनके पास!! वो भी 800-900 वर्ष पहले!!!!!
रामप्पा या राम लिंगेश्वर मंदिर आन्ध्र प्रदेश के वरंगल से 70कि. मी दूर पालम पेट में स्थित है. यह मंदिर 6 फ़ीट ऊँचे मंच ( प्लेट फ़ार्म) पर बना हुआ है,इस मंदिर के बारे में ज्यादा जानकारी यहाँ मिल सकती है.

रविवार, अप्रैल 23, 2006

चित्र पहेली-2 कड़ी-2


लंका कांड से मेरा आशय यह था कि श्री राम जब पुल बनवाते हैं तो उस समय कुछ ऎसी बात होती है जो विज्ञान को चुनौती देती है . वैसे लंका कांड से इस मंदिर का कुछ लेना देना नहीं है. और यह मंदिर तो वैसे भी मात्र 900 वर्ष पुराना है, चलिये दुसरी कड़ी देता हुं कि इस मंदिर ने आर्किमिडिज के एक सिद्धांत को गलत साबित कर दिया है. साथ ही इस मंदिर का दुसरा फ़ोटो भी दे रहा हुँ.

शनिवार, अप्रैल 22, 2006

चित्र पहेली २





चलिये जब पहेलियों की बात चली है तो एक चित्र पहेली और आपके लिये,यहाँ प्रस्तुत चित्र एक दक्षिण भारतीय मन्दिर का है, इस मन्दिर कि विशेषता यह है कि..................नहीं, जब विशेषता बता दी तो फ़िर पहेली क्या रही, और हाँ पिछली बार जो गल्ती हुई वो इस बार नहीं दोहराऊँगा. फोटो पर माऊस रखने से इस बार मन्दिर का नाम पता नही चलेगा जैसे पिछली बार सभी सावित्री बाई का नाम जान गए थे.
कड़ी : रामायण के लंका काण्ड में एक प्रसंग है जब भगवान श्री राम श्री रामेश्वरम से लंका तक पुल बनाने के बारे में सोचते हैं........और हाँ यह मंदिर लगभग 900 वर्ष पहले बना था. बस इतना हिन्ट काफ़ी है, क्यों ठीक है ना.........?आजकल टिप्पणियाँ धीरे धीरे काफ़ी कम होती जा रही है, चिठ्ठे अच्छे या बुरे हों, अच्छी या खराब टिप्पणी तो दें.

गुरुवार, अप्रैल 20, 2006

अटल जी से पेन मांगना


कभी कभी जिन्दगी में ऎसे मौके आते है जब हम उन मौकों का लाभ नहीं उठा पाते फ़िर जिन्दगी भर पछताते रहते हैं. ऎसा ही एक बार मेरे साथ हुआ था, बात उन दिनों की है जब मैं सुरत में रह रहा था. एक दिन जब तापी (ताप्ती ) नदी पर बने सरदार पुल का उदघाटन करने के लिये माननीय अटल जी वहाँ आये थे,अटल जी मेरे आदर्श हुआ करते थे,( आज भी हैं, मैं सोचता हुँ कि उन्होने सबसे बड़ी गल्ती प्रधान मंत्री पद लेकर की ) उदघाटन और उनके भाषण के पुरे होने के बाद में उनके ओटोग्राफ़ लेने के लिये भीड़ को चीर कर उनके पास पहुँचा और अटल जी को ओटोग्राफ़ पुस्तिका दी तो उन्होने मेरी जेब से पेन निकाल कर पुस्तिका में हस्ताक्षर दे दिये,(ध्यान दें पेन २/- मूल्य का स्टिक वाला था). उन्होने मुझे पुस्तिका वापस दी और पेन अपनी जेब में रख दिया में भूल गया कि में किसके सामने खड़ा हुँ, में वहीं कुछ सोचते हुए खड़ा रह गया तब अटल जी ने मुझसे पुछा क्या हुआ? और मेरे मुँह से पता नही कैसे निकल गया "सर मेरा पेन आपके पास रह गया", तो अटल जी ने हँसते हुए अपनी जेब से पेन निकाल कर मेरी जेब मे रख दिया और मेरी पीठ थपथपाई.
आज जब भी वह बात याद आती है तो बड़ा अफ़सोस होता है कि मेंने उनसे एक २/- का पेन भी फ़िर से माँग लिया.अगर आप लोगों के साथ भी एसा ही कुछ वाकया हुआ हो तो बतायें

रविवार, अप्रैल 16, 2006

क्रिकेट

हम राजनीती पर जब भी चर्चा करते हैं तो हमारा विषय यह होता है कि राजनीती में युवाओं को आगे आना चाहिये या युवाओं को मौका देना चाहिये पर जब भी क्रिकेट की बात आती है तो हम सचिन और सौरव का गुणगान करने लगते है चाहे वो अच्छा खेल पा रहे हो या नहीं.
इंगलैण्ड के साथ खेले गये मैच के साथ ही इस श्रंखला के सारे मैचों में (एक को छोड कर) भारत की विजय के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि भारत के पास अभी कई और प्रतिभावान खिलाड़ी हैं , अब हमे सौरव, सचिन और सहवाग की जगह महेन्द्र सिंह धोनी, इरफ़ान पठान,मुनाफ़ पटेल, श्री संत, रॉबिन उत्तपा जैसे और योग्य खिलाडीयों पर ध्यान और उन्हें मौका देना चाहिये.
हम जानते हैं कि क्रिकेट के लिये सचिन, सौरव और सहवाग बहुत कुछ किया है परन्तु अब हम उनके पुराने प्रदर्शन को हम ले कर बैठ नहीं सकते, इन खिलाड़ियों को टीम से बाहर निकाला जाय, उसकी बजाय खुद इनको ही क्रिकेट से सन्यास ले लेना चाहिये.
सौरव की इतनी नाकामी के बाद लोगों का एक बड़ा वर्ग सौरव को टीम में शामिल किये जाने का पक्षधर है,जो रणजी मैचों में भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं. सचिन और सहवाग भी अब थक चुके हैं, अपने आप को इतने हँसी का पात्र बनाने की बजाय कपिल देव,सुनील गावस्कर और सिध्धु की भाँति अपनी कारगिर्दी के शीर्ष पर रहते हुए क्रिकेट से सन्यास ले लेते तो उनका बड़्प्पन होता, परन्तु सौरव ने इतनी सफ़लता के बाद अपनी हालत एक नवोदित खिलाड़ी जैसी कर ली है जो इस आस पर बैठा हे कि मुझे इस मैच में, नहीं तो अगले मैच में टीम में शामिल किया जायेगा. इतने अच्छे खिलाड़ी ने अपनी कैसी दयनीय हालत बना ली है,सचिन का हाल भी कुछ ऐसा ही है और सहवाग तो जिनसे टीम को बहुत उम्मीदें रहती है वह कितने समय से कुछ नही कर पा रहे है.

शुक्रवार, अप्रैल 14, 2006

आरक्षण पर एक अनुभवी चिठ्ठाकार के विचार

आरक्षण पर आज एक अनुभवी चिठ्ठाकार के विचार पढ़ कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई.यानि आप भी आरक्षण को सही मानते हैं, आरक्षण होना ही चाहिये चाहे वो योग्य उम्मीदवारों की बलि लेकर ही क्यों न हो, चाहे अयोग्य पर अनुसुचित जाति- जनजाती के उम्मीदवारों में अनुभव हीनता ही क्यों ना हो, एसी ही सोच की वजह से इस देश के योग्य छात्र विदेश पलायन कर रहे हें, ना.......... पर हमे इस बात से क्या? हमें तो उनको सर माथे पर बिठाना है जिन्हे काम करना ढंग से आता भी हो या नहीं,
आप लिखते हैं उन्होने हर संभव कोशिश की कि अर्जुन सिन्ह को खलनायक साबित किया जाय, यानि आप के लिये वे आदर्श हें जिन्होने देश में सवर्ण और असवर्ण के बीच में भेद भाव करवाया. एक जगह आप ने चुनाव आयुक्तों के लिये लिखा कि "चुनाव आयोग के ईमानदार आयुक्तों " मानों चुनाव आयोग के सारे आयुक्त सीधे स्वर्ग से उतर कर आये हैं, वे ईमानदार के सिवा कुछ हो ही नही सकते.
आपने लिखा समाचार चैनलों और अख़बारों द्वारा ‘योग्यता’ के पक्ष में मुखर स्वरों की खोज करने के लिए जिस तरह से कैमरामैन और पत्रकारों की टीम चुनिंदा जगहों पर भेजी गई और उन्हें एकपक्षीय और पक्षपाती ढंग से प्रस्तुत किया गया, उससे भी अधिक शर्मनाक था इस विषय पर परिचर्चाओं का संचालन। इस तरह की सभी परिचर्चाओं का संचालन निरपवाद रूप से सवर्ण पत्रकारों द्वारा किया गया। यानि उन्होनें अगर आरक्षण के विरोध की बजाय समर्थन के बारे में कहा होता तो सही होता, तब यह पक्षपात थोड़े ही होता क्यों कि तब तो बात पिछड़े लोगो की हो रही होती और पिछड़े तो आप की नज़र मैं पैदाईशी देवदूत होते हैं उन्हे किसी भी हाल में आरक्षण मिलना ही चाहिये चाहे योग्य सवर्ण भीख ही क्यों ना मांगे.
आपने सारे पत्रकार जगत को गलत साबित करने की कोशिश की, अगर सवर्ण ( ये आप सोचते है कि वे सारे सवर्ण ही थे, ये भेदभाव पत्रकारों के मन में नहीं होता) पत्रकारों की बजाय वहाँ आरक्षण समर्थक पत्रकार वहाँ होते तो बड़े खुश होते आप क्यों कि अयोग्य उम्मीदवारों के समर्थन में बोलने वाला कोई तो होता
आपने लिखा इस देश में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के पक्षधरों की संख्या उसके विरोधियों की संख्या से कम से कम चौगुनी है। लेकिन इन स्वनामधन्य पत्रकारों को पूरे देश में आरक्षण के पक्ष में बोलने वाला प्रतिभाशाली व्यक्ति खोजने से भी नहीं मिला। उनकी नज़रों में पिछड़े वर्ग के सारे लोग ही प्रतिभाहीन थे।यानि आपके हिसाब से आरक्षण उन लोगों ही मिलना चाहिये जिसके समर्थक उसके विरोधियों से कम से कम दुगुने- चौगुने हो, योग्यता कोई मायने नही रखती आपके लिये.
इस देश की बुरी हालत का जिम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ आरक्षण है, भ्रष्टाचार का क्रमांक तो उससे कहीं पीछे है.
आदरणीय जीतु भाई के लेख में कई लोगों ने अर्जुन सिंह को जम कर कोसा परन्तु मेरे जीवन में धर्म का महत्व प्रतियोगिता में किसी माई के लाल ने छाती ठोक के यह कहने की हिम्मत की कि हां हमे हमारा धर्म प्यारा है, सबने अपने धर्म को ही कोसा, जब तक हम हिन्दु धर्म को गाली देने की आदत को नहीं बदलेंगे अर्जुन सिंह (अर्जुन काहे का इस बदमाश को शिखंडी कहना भी उस महान योद्धा का अपमान होगा) जैसे लोग अल्पसंख्यकों और मुस्लिम लोगो में दीवार खड़ी करते रहेंगे, वो दिन दूर नही जब योग्य छात्र भीख मांगेगे और आरक्षण की वजह से अयोग्य लोग सारी जगहों पर बैठे होंगे और बैठे हैं भी, हम अक्सर रैल्वे और दुसरी जगहों पर देखते हैं कि जिन लोगो को ढंग से कम्प्युटर चलाना नहीं आता वे लोग अपनी गलतियों पर बाबु बन कर लोगो को हड़काते रहते हैं.
यह लड़ाई आरक्षण की नही योग्यता और अयोग्यता की है, कम से कम हमें तो योग्यता का साथ देना चाहिये चाहे वो सवर्ण हो या असवर्ण; और यही आरक्षण का पैमाना होना चाहिये
अब भी कुछ देर नही हुई जागो......

सोमवार, अप्रैल 10, 2006

भारतीय संस्कृती के समर्थकों का अंग्रेज़ी प्रेम

लिखने से पहले ही स्पष्ट करना चाहुंगा कि मेरा उद्धेश्य किसी का अपमान करना नहीं हे परन्तु कहे बिना रहा भी नही जाता. योग और अध्यात्म के विषय में इन दिनो देश के दो महान योगी श्री स्वामी रामदेव और श्री श्री रवि शंकर जी जो भारतीय संस्कृति ओर भारतीयता के बारे में दिन रात प्रचार कर रहे हैं. यहां वहां शिविर आयोजित कर देश की जनता का स्वास्थय सुधार रहे हैं ( स्वयं मैने इन दोनो से स्वास्थय लाभ लिया एवं ध्यान करना सीखा है) परन्तु अखरने वाली बात यह है कि इन दोनो संस्थाओं क्रमशः दिव्य योग एवं आर्ट ओफ़ लीवींग की अधिकारिक वेब साईट अभी तक हिन्दी भाषा में नही बनी है, जब की अमेरीका जाकर ध्यान सिखाने वाले एक ओर महान दार्शनिक ओशो की साईट हिन्दी के अलावा अन्य १२ विदेशी भाषाओं में है.

शनिवार, अप्रैल 08, 2006

सावित्री बाई खानोलकर लेख - 2


विवाह के बाद सावित्री बाई ने पुर्ण रुप से भारतीय संस्कृति को अपना लिया, हिन्दु धर्म अपनाया, महाराष्ट्र के गाँव-देहात में पहने जाने वाली 9 वारी साड़ी पहनना शुरु कर दिया ओर 1-2 वर्ष में तो सावित्री बाई शुद्ध मराठी ओर हिन्दी भाषा बोलने लगी; मानों उनका जन्म भारत में ही हुआ हो, (आज हाल यह है कि भारत में जन्मी और हिन्दी फ़िल्मों मे अभिनय कर पैसा कमाने वाली अभिनेत्रियों को हिन्दी बोलना नहीं आता या जिन्हें आता उन्हे हिन्दी बोलने में शर्म आती है).
कैप्टन विक्रम अब मेजर बन चुके थे और जब उनका तबादला पटना हो गया ओर सावित्री बाई को एक नयी दिशा मिली, उन्होने पटना विश्वविध्यालय में संस्कृत नाटक, वेदांत, उपनिषद और हिन्दु धर्म पर गहन अध्ययन किया. ( रवि कामदार जी पढ़ रहे हैं ना), इन विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत हो गयी कि वे स्वामी राम कृष्ण मिशन में इन विषयों पर प्रवचन देने लगीं, सावित्री बाई चित्रकला और पैन्सिल रेखाचित्र बनाने भी माहिर थी तथा भारत के पौराणिक प्रसंगों पर चित्र बनाना उनके प्रिय शौक थे. उन्होने पं. उदय शंकर ( पं. रवि शंकर के बड़े भाई )से नृत्य सीखा, यानि एक आम भारतीय से ज्यादा भारतीय बन चुकी थी. उन्होने Saints of Maharashtra एवं Sanskrit Dictonery of Names नामक दो पुस्तकें भी लिखी.
मेजर विक्रम अब लेफ़्टिनेन्ट कर्नल बन चुके थे, भारत की आज़ादी के बाद 1947 में भारत पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए बहादुर सैनिकों को सम्मनित करने के लिये पदक की आवश्यकता महसूस हुई.मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल ने पदकों के नाम पसन्द कर लिये थे परमवीर चक्र, महावीर चक्र ओर वीर चक्र. बस अब उनकी डिजाईन करने की देरी थी, मेजर जनरल अट्टल को इस के लिये सावित्री बाई सबसे योग्य लगी, क्यों कि सावित्री बाई को भारत के पौराणिक प्रसंगों की अच्छी जानकारी थी, ओर अट्टल भारतीय गौरव को प्रदर्शित करता हो ऐसा पदक चाहते थे, सावित्री बाई ने उन्हें निराश नही किया और ऐसा पदक बना कर दिया जो भारतीय सैनिकों के त्याग और समर्पण को दर्शाता है.
सावित्री बाई को पदक की डिजाईन के लिये इन्द्र का वज्र सबसे योग्य लगा क्यों कि वज्र बना था महर्षि दधीची की अस्थियों से, वज्र के लिये महर्षि दधीची को अपने प्राणों तथा देह का त्याग करना पडा़. महर्षि दधीची की अस्थियों से बने शस्त्र वज्र को धारण कर इन्द्र वज्रपाणी कहलाये ओर वृत्रासुर का संहार किया.
पदक बनाया गया 3.5 से.मी का कांस्य धातु से और संयोग देखिये सबसे पहले पदक मिला किसे? सावित्री बाई की पुत्री के देवर मेजर सोमनाथ शर्मा को जो वीरता पुर्वक लड़ते हुए 3 नवंबर 1947 को शहीद हुए. उक्त युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी ने 300 पकिस्तानी सैनिकों का सफ़ाया किया, भारत के लगभग 22 सैनिक शहीद हुए और श्रीनगर हवाई अड्डे तथा कश्मीर को बचाया.
मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी शहादत के लगभग 3 वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को यह पदक प्रदान किया गया (इतनी देरी क्यों हुई अगर पाठकों को पता चलेगा तो तत्कालीन सरकार के कायर नेताओं पर बड़ा गुस्सा आयेगा, इस की कहानी फ़िर कभी, अगर पाठक चाहें तो )
मेजर जनरल विक्रम खानोलकर के 1952 में देहांत हो जाने के बाद सावित्री बाई ने अपने जीवन को अध्यात्म की तरफ़ मोड लिया, वे दार्जिलिंग के राम कृष्ण मिशन में चली गयी. सावित्री बाई ने अपनी जिन्दगी के अन्तिम वर्ष अपनी पुत्री मृणालिनी के साथ गुजारे ओर 26 नवम्बर 1990 को उनका देहान्त हुआ.
यह कैसी विडम्बना है कि सावित्री बाई जैसी महान हस्ती के बारे में आज स्कूलों या कॉलेजों के अभ्यासक्रमों में नहीं पढ़ाया जाता, अनतर्जाल पर उनके बारे में कोइ खास जानकारी उपलब्ध नहीं है. (लेख लिखते समय कोशिश की गयी कि कहीं कोइ गलती ना हो फ़िर भी संभव है, उसके लिये पाठकों ओर सदगत सावित्री बाई से क्षमा याचना. अगर कोइ जानकारी जो यहाँ ना लिखी गयी हो, और पाठक जानते हों तो जरूर अवगत करावें, धन्यवाद) परमवीर चक्र के बारे में ज्यादा जानकारी यहाँ मौजूद है

शुक्रवार, अप्रैल 07, 2006

चित्र पहेली का सही जवाब: सावित्री बाई खानोलकर

यह चित्र " इवा वान लिन्डा मेडे- डी-रोज़ की है, जैसा कि समीर लाल जी ने बताया, हंगरियन पिता और रशियन माता की स्विस पुत्री इवा का जन्म 20 जुलाई 1913 को स्विटज़रलेन्ड में हुआ. इवा के जन्म के तुरन्त बाद इवा की माँ का देहान्त हो गया.
15-16 वर्ष की उम्र में इवा को माँ की कमी खलने लगी ओर ठीक उन्ही दिनों ( सन 1929) ब्रिटेन की सेन्डहर्स्ट मिलिटरी कॉलेज के एक भारतीय छात्र विक्रम खानोलकर ऑल्पस के पहाड़ों पर छुट्टी मनाने ओर स्कीइंग करने पहुँचे.
जैसा होता आया है, विक्रम ओर इवा का परिचय हुआ, विक्रम ने इवा को भारतीय संस्कृति तथा इवा के मन को शान्ति मिले इस तरह की बातें बताई, विक्रम ओर इवा किसी को सपने में भी ख़्याल नहीं था कि नियती उन के साथ क्या खेल खेलने वाली है! छुट्टियां पुरी होने पर दोनों अपने अपने घर लौट गए.
पढ़ाई पुरी करने के बाद विक्रम भारत लौटे ओर भारतीय सेना की 5/11वीं सिख बटालियन से जुड़ गये. अब उनका नाम था कैप्टन विक्रम खानोलकर. उनकी सबसे पहली पोस्टिंग ओरंगाबाद में हुई. इवा के साथ उनका पत्राचार अभी तक जारी था, एक दिन इवा का पत्र मिला कि वो हमेशा के लिये भारत आ रही है, ओर वाकई इवा भारत आ पहुँची. इवा ने भारत आते ही विक्रम को अपना निर्णय बता दिया कि वह उन्हीं से शादी करेगी. घर वालों के थोड़े विरोध के बाद सभी ने इवा को अपना लिया और 1932 में महाराष्ट्रियन रिवाजों के साथ इवा ओर विक्रम का विवाह हो गया. विवाह के बाद इवा का नया नाम रखा गया सावित्री, ओर इन्हीं सावित्री ने सावित्री बाई खानोलकर के नाम से भारतीय सैन्य इतिहास की एक तारीख रच दी.
(क्रमशः)

गुरुवार, अप्रैल 06, 2006

चित्र पहेली



आज कल सोनिया जी के त्याग की बड़ी चर्चा चल रही है, अब यह त्याग था या ओर कुछ ओर इस बात की चर्चा हम यहाँ नहीं करेंगे, परन्तु सोनिया जी की ही तरह जन्म से विदेशी एक भारतीय महिला का एक दुर्लभ चित्र यहाँ प्रस्तुत है, इनका भारतीय इतिहास में बहुत बड़ा योगदान है, क्या आप इन को पहचानते है? इन के बारे में अगला लेख शीघ्र लिख रहा हुँ तब तक आप इन को पहचानें ओर बताये यह महिला कौन है? ओर भारत के इतिहास में इन का क्या योगदान है?

मंगलवार, अप्रैल 04, 2006

अन्धविश्वास और अज्ञानता की परकाष्ठा

हमारे बचपन में लोगो में लोगों में भगवान के नाम से छपे पर्चें बाँटने का एक क्रेज़ हुआ करता था, राम, कृष्ण, तिरुपती बालाजी ओर ना जाने कौन कौन से भगवान, वैसे साँई बाबा ओर हनुमान जी तो उन के मुख्य नायक हुआ करते थे. पर्चों में लिखा होता था,... एक दिन एक मन्दिर में पुजारी पूजा कर रहा था, अचानक वहाँ एक साँप निकला ओर उसने पुजारी से कहा ( हाँ भाइ वह साँप मनुष्य के स्वर में बोला था) मै फ़िर से अवतार लेने वाला हुँ आदि आदि... फ़लाँ ने ५०० पर्चे छपवा कर बाँटे तो उसे पचास हजार की लाटरी लगी, फ़लाँ ने पर्चे को फ़ाड दिया तो कुछ ही दिनों में उसका इकलौता बेटा मर गया, अमुक ने पर्चा छपवाने में देरी की तो उसे व्यवसाय में घाटा हुआ, आप भी इसी तरह 200 या 500 पर्चे छपवा कर वितरित करे तो आने वाले १४ दिनों में आपको आर्थिक लाभ होगा (कुछ तो गारंटी भी देते थे), अन्यथा आपको भी फ़लाँ की तरह नुकसान हो सकता है, हम आसानी से समझ सकते हैं कि वह प्रिन्टिंग प्रेस वालों की चालें हुआ करती थी. ज़माना बदला, जेरॉक्स मशीनें आयी उन लोगों ने भी इस काम को खुब बढ़ाया, फ़िर मोबाइल फ़ोन का नंबर आया ओर आजकल अन्तर्जाल पर यह काम चल रहा है, ज्यों ही याहू मैसेन्जर लोगिन करो ओफ़लाइन मैसेज तैयार, इस एस एम एस को १० लोगो को फ़ोरवर्ड करो ओर ५ दिन में फ़ायदा पाओ, मेल चेक करो तो वहाँ भी दो चार भगवान तैयार....किस हद तक अज्ञानता? कहाँ ले जायेगा यह अन्धविश्वास. हद तो तब होती है जब मेरे साईबर कॉफ़े मे लोग मुझसे कहते मुझे यह नहीं वह कम्प्युटर दो वह मेरे लिये लकी है, हसीँ भी आती है और पढे लिखे लोगों ( कुछ तो एम.सी.ए डिग्री वाले भी हैं ) पर गुस्सा भी आता है, कुछ कह नही सकते. हुआ युं कि किसी ने परीक्षा का परिणाम किसी कम्प्युटर पर देखा तो वह पास हुआ ओर अगले सेमेस्टर का परिणाम दुसरे कम्प्युटर पर देखा ओर भाई साब अनुत्तीर्ण हो गये तो सारा दोष बिचारे कम्प्युटर का कि वह अनलकी है.
मैने आज तक कई पर्चों को फ़ाड़ा है, किसी एस एम एस का या ओफ़लाईन मैसेज का उत्तर नही दिया,बिल्ली के रास्ता काटने पर भी कई बार घर से बाहर निकला हुँ पर आज तक मेरा कुछ नही हुआ. क्या राय है आपकी मैं सही कर रहा हुं या गलत ?

रविवार, अप्रैल 02, 2006

मेरे जीवन में धर्म का महत्व



कई चिठ्ठाकारों के धर्म पर विचार पढ़ कर धर्म पर लिखने का मन हुआ है, दर असल धर्म की कोई परिभाषा हो ही नही सकती, क्यों कि हर परिस्थिती, जगह ओर समय के अनुसार धर्म की परिभाषायें बदलती रहती है.
में मानता हुँ कि धर्म की सही परिभाषा है "मानवता", और धर्म का मतलब हमारे देश ओर समाज की उन्नती से होना चाहिये. शायद आप इसे "अपने मुँह मियाँ मिठ्ठु बनना" कह सकते हैं परन्तु मैने आज तक इस धर्म को निभाया है, ओर हर इन्सान किसी ना किसी रूप में अपने धर्म का निर्वाह करता ही है .
मैं जन्म से जैन हुँ और मुझे जैन मेरा धर्म बहुत पसन्द है मेरी इच्छा है कि मैं हर जन्म में जैन के रूप में ही जन्म लूँ. अब मुझे मेरा धर्म इस वजह से ही पसन्द नही है कि इसमें भगवान महावीर हुए थे, मुझे मेरा धर्म इसके सिद्धान्तों की वजह से बहुत पसन्द है, आप ही सोचिये सत्य ओर अहिंसा में क्या बुराई है.
जैन एक एसा धर्म है जिसे अपनाने के लिये जैन घर में पैदा होना जरूरी नही होता, मात्र इसके सिद्धान्तों को अपनाने मात्र से जैन हुआ जा सकता है.मैं एक चुस्त जैन की भाँति जैन पूजा पाठ नही करता, सामायिक करने का सही तरीका मुझे नही आता, सुहैब के माताजी ओर पिताजी की ही तरह मेरे माताजी ओर पिताजी भी मुझे अक्सर सामायिक करने ओर साधु सन्तों के दर्शन करने को बाध्य करते है ओर मे उन्हे नाराज़ नही करता, पत्नि त्योहारों (खासकर होली ओर बुजुर्गो की पुण्य तिथियोँ ) पर मुझे उन्हे धूप देने ( मारवाडी समाज मे भगवान की पूजा का एक तरीका जिसमें जलते अंगारों पर घी ओर घर मे बनी मिठाईयाँ रख दी जाती है) को कहती है, मुझे सही तरीका नही आता और में यह भी, जानता हुँ कि यह सब आडम्बर है पर मे उन्हें खुश रखने की कोशिश करता हुँ, क्या यह धर्म नही है कि आप अपने माता -पिता, पत्नी ओर परिवार को अपने कार्यों से खुश रखो.
मैं एक आम भारतीय की भाँति अपने देश, अपने परिवार ओर अपने समाज से बहुत प्रेम करता हुँ जहाँ मेने मानवता का धर्म सीखा. मुझे एसे लोगो से चिढ़ है जिन्हें हर बात में नुक्स निकालने की आदत होती है ओर अपने बै-सिर पैर के तर्कों से कभी धर्म तो कभी समाज को बदनाम करते रहते है, शायद यह भी मेरा एक धर्म है.
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