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शनिवार, अप्रैल 08, 2006

सावित्री बाई खानोलकर लेख - 2


विवाह के बाद सावित्री बाई ने पुर्ण रुप से भारतीय संस्कृति को अपना लिया, हिन्दु धर्म अपनाया, महाराष्ट्र के गाँव-देहात में पहने जाने वाली 9 वारी साड़ी पहनना शुरु कर दिया ओर 1-2 वर्ष में तो सावित्री बाई शुद्ध मराठी ओर हिन्दी भाषा बोलने लगी; मानों उनका जन्म भारत में ही हुआ हो, (आज हाल यह है कि भारत में जन्मी और हिन्दी फ़िल्मों मे अभिनय कर पैसा कमाने वाली अभिनेत्रियों को हिन्दी बोलना नहीं आता या जिन्हें आता उन्हे हिन्दी बोलने में शर्म आती है).
कैप्टन विक्रम अब मेजर बन चुके थे और जब उनका तबादला पटना हो गया ओर सावित्री बाई को एक नयी दिशा मिली, उन्होने पटना विश्वविध्यालय में संस्कृत नाटक, वेदांत, उपनिषद और हिन्दु धर्म पर गहन अध्ययन किया. ( रवि कामदार जी पढ़ रहे हैं ना), इन विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत हो गयी कि वे स्वामी राम कृष्ण मिशन में इन विषयों पर प्रवचन देने लगीं, सावित्री बाई चित्रकला और पैन्सिल रेखाचित्र बनाने भी माहिर थी तथा भारत के पौराणिक प्रसंगों पर चित्र बनाना उनके प्रिय शौक थे. उन्होने पं. उदय शंकर ( पं. रवि शंकर के बड़े भाई )से नृत्य सीखा, यानि एक आम भारतीय से ज्यादा भारतीय बन चुकी थी. उन्होने Saints of Maharashtra एवं Sanskrit Dictonery of Names नामक दो पुस्तकें भी लिखी.
मेजर विक्रम अब लेफ़्टिनेन्ट कर्नल बन चुके थे, भारत की आज़ादी के बाद 1947 में भारत पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए बहादुर सैनिकों को सम्मनित करने के लिये पदक की आवश्यकता महसूस हुई.मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल ने पदकों के नाम पसन्द कर लिये थे परमवीर चक्र, महावीर चक्र ओर वीर चक्र. बस अब उनकी डिजाईन करने की देरी थी, मेजर जनरल अट्टल को इस के लिये सावित्री बाई सबसे योग्य लगी, क्यों कि सावित्री बाई को भारत के पौराणिक प्रसंगों की अच्छी जानकारी थी, ओर अट्टल भारतीय गौरव को प्रदर्शित करता हो ऐसा पदक चाहते थे, सावित्री बाई ने उन्हें निराश नही किया और ऐसा पदक बना कर दिया जो भारतीय सैनिकों के त्याग और समर्पण को दर्शाता है.
सावित्री बाई को पदक की डिजाईन के लिये इन्द्र का वज्र सबसे योग्य लगा क्यों कि वज्र बना था महर्षि दधीची की अस्थियों से, वज्र के लिये महर्षि दधीची को अपने प्राणों तथा देह का त्याग करना पडा़. महर्षि दधीची की अस्थियों से बने शस्त्र वज्र को धारण कर इन्द्र वज्रपाणी कहलाये ओर वृत्रासुर का संहार किया.
पदक बनाया गया 3.5 से.मी का कांस्य धातु से और संयोग देखिये सबसे पहले पदक मिला किसे? सावित्री बाई की पुत्री के देवर मेजर सोमनाथ शर्मा को जो वीरता पुर्वक लड़ते हुए 3 नवंबर 1947 को शहीद हुए. उक्त युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी ने 300 पकिस्तानी सैनिकों का सफ़ाया किया, भारत के लगभग 22 सैनिक शहीद हुए और श्रीनगर हवाई अड्डे तथा कश्मीर को बचाया.
मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी शहादत के लगभग 3 वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को यह पदक प्रदान किया गया (इतनी देरी क्यों हुई अगर पाठकों को पता चलेगा तो तत्कालीन सरकार के कायर नेताओं पर बड़ा गुस्सा आयेगा, इस की कहानी फ़िर कभी, अगर पाठक चाहें तो )
मेजर जनरल विक्रम खानोलकर के 1952 में देहांत हो जाने के बाद सावित्री बाई ने अपने जीवन को अध्यात्म की तरफ़ मोड लिया, वे दार्जिलिंग के राम कृष्ण मिशन में चली गयी. सावित्री बाई ने अपनी जिन्दगी के अन्तिम वर्ष अपनी पुत्री मृणालिनी के साथ गुजारे ओर 26 नवम्बर 1990 को उनका देहान्त हुआ.
यह कैसी विडम्बना है कि सावित्री बाई जैसी महान हस्ती के बारे में आज स्कूलों या कॉलेजों के अभ्यासक्रमों में नहीं पढ़ाया जाता, अनतर्जाल पर उनके बारे में कोइ खास जानकारी उपलब्ध नहीं है. (लेख लिखते समय कोशिश की गयी कि कहीं कोइ गलती ना हो फ़िर भी संभव है, उसके लिये पाठकों ओर सदगत सावित्री बाई से क्षमा याचना. अगर कोइ जानकारी जो यहाँ ना लिखी गयी हो, और पाठक जानते हों तो जरूर अवगत करावें, धन्यवाद) परमवीर चक्र के बारे में ज्यादा जानकारी यहाँ मौजूद है

4 टिप्‍पणियां:

पंकज बेंगाणी ने कहा…

क्योंकि सावित्री किसी राजनितीक परिवार विशेष से जुडी नही थी. ऐसे कितने ही लोग है, जिनको इतिहास ने आसानी से भुला दिया.

Udan Tashtari ने कहा…

युगल भाई एवं सागर भाई एवं पंकज भाई,

मै स्वयं भी अंग्रेजी मे लिखने के लिये शर्मिंदा हूँ, और आप ५ की जगह ५० अंक भी काटते ऎसे गल्ती के लिये, तो सर आंखॊं पर.पंकज भाई ने जैसे ही दिशा ईंगित की, मुझे पूरी बात याद आ गई.
एक बडा करीबी मित्र खोया कारगिल युद्ध के दौरान-मेजर प्रेम पुरूषोत्तम-उसी वक्त परम वीर चक्र आदि की जानकारी एकत्र की थी और वही कम्पयुटर पर रखी थी.चूँकि वो नेट से ली गई थी, इसलिये अंग्रेजी मे थी और आलस्यवश हिन्दी मे अनुवाद नही कर पाया.(हालांकि मेजर प्रेम को उनकी शहादत पर कोई पदक नही दिया गया था और शहर का एक छोटा सा चौराहा, जिसके लिये अथक प्रयास किये गये कि उसे इस शहीद के नाम कर दिया, जहाँ उसने और हम सबने बचपन बिताया था, आज भी अपने नाम की पहचान की लडाई लड रहा है), यह विडंबना ही तो है.
बहुत सुंदरता से इस महान जानकारी को प्रस्तुत करने के लिये सागर भाई को बधाई.
सादर
समीर लाल

Sagar Chand Nahar ने कहा…

आदरणीय समीर लाल जी,
मेजर प्रेम पुरुषोत्तम जी की शहादत के बारे में जानकर बहुत दुख: और आपके प्रति गौरव हुआ कि आप एक महान व्यक्तित्व के साथी रह चुके हैं. ऐसे कई सैनिक या अधिकारी हैं जिन्हें उचित सम्मान नही मिला परन्तु वे लोग किसी पदक की आशा भी नहीं करते. मेजर प्रेम पुरुषोत्तम जी सहित ऐसे सभी नामी ओर अनामी सैनिकों को श्रद्धान्जली.
सागर चन्द नाहर

उन्मुक्त ने कहा…

जानकारी के लिये धन्यवाद