आदरणीय अतुल भाई एवं ईस्वामीजी
मेरी पोस्ट को एक बार फ़िर से पढ़िये और बताईय़े कि मैने कहाँ आप लोगों पर व्यक्तिगत कुछ लिखा है या कहाँ आप लोगों को देशद्रोही साबित करने की कोशिश की है? मैने उस सारे समूह के लिये लिखा है जो अक्सर अमरीका या किसी विदेश से तुलना करते समय इतने तल्ख हो जाते है कि कई बार उनका स्वर भारत के प्रति उपहास पूर्ण हो जाता है, विषय यह था कि अमरीकी समाज कैसा है न कि भारत में क्या बुराईयाँ है। ये ना भूलें कि भारत को आजाद हुए कितने वर्ष हुए है और इन सालों में भारत ने जितनी तरक्की करी है शायद किसी देश ने नहीं की होगी, अब रही बात भ्रष्टाचार या अपराध की तो मैं यह कहूँगा कि कूड़ा करकट हर गाँव में होता है। अब भारत जैसा भी है अपना ही है।
जिस तरह आप सबने अपनी राय रखी मैने भी रखी इसमें इतना बुरा मानने की कतई जरूरत नहीं थी, फ़िर भी आप की भावनायें आहत होती हो तो क्षमा याचना।
संजय भाई
सलाह के लिये धन्यवाद, किसी की भावनाओं का इतना भी मजाक ना उड़ायें कि उसे यह लगने लगे कि चिठ्ठा लिखना ही व्यर्थ है, देश के प्रति मेरा जो प्रेम है उसके लिये ध्वज लगाने का दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं होती, दिखावा वे करते होंगे जिनके पास कुछ होता नहीं।
मुझे अक्सर कहा जाता है कि भावनाओं मैं ना बहुँ पर भावनाओं में मैं नही बहा आप सब बहे हैं।
एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति आप लोगों की तरह बातों को अच्छे शब्दों में नहीं ढ़ाल सकता, और शायद इसिलिये में अपने आप को चिठ्ठा लिखने के योग्य नहीं समझता और इस अपने अन्तिम चिठ्ठे के साथ आप सब से विदा लेता हुँ, आज के बाद आपको कहीं भी मेरे बेहुदा चिठ्ठे और बचकानी टिप्पणियाँ (परिचर्चा पर भी) पढ़ने को नहीं मिलेंगी।
मेरे शब्दों से आप लोगों को जो तकलीफ़ हुई उन सबसे मैं एक बार और क्षमा याचना करता हुँ । और आप लोगों ने अब तक जो प्रेम दिया उसके लिये धन्यवाद देता हुं।
शुक्रवार, जून 30, 2006
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30 टिप्पणियां:
सागर भाई,
स्वस्थ आलोचनाओं का इतना बुरा नहीं मानना चाहिए.
बल्कि आलोचनाओं से तो हमें संबल मिलता है अपनी बातों को पुख्ता रूप में रखने का.
हर एक का नजरिया होता है चीजों को देखने का.
अतः मेरा निवेदन है कि अपने निर्णय पर एक बार फिर पुनर्विचार करें.
कुछ समय पश्चात् आपको स्वयं लगेगा कि आलोचनाएँ प्रत्यालोचनाएँ तो स्वस्थ, जीवंत लेखन के लिए जरूरी हैं - बस उन्हें व्यक्तिगत रूप से कभी न लें.
सागरभाई,
ये ठीक नही है. आहत ना हों.
विचार प्रगट करने का अधिकार सबको होता है. समझना हमारा काम है. कोई चाहे जो कहे.. हमें हमारा निर्णय स्वयं लेना होता है. आप क्यों पीछे हटना चाहते हैं.
पुन: विचार करें.
सागर भाई,
मै आपकी भावनाओं की कद्र करता हूं। लेकिन ये भी मानता हूं कि अतुल जी और इस्वामी जी का आपकी भावनाओ को ठेस पहुचाने का इरादा कतई नही था। आप उनके विचारो को सकारात्मक रूप से लें।
आपके विचारो मे और उनके विचारो मे अंतर हो सकता है, जो स्वाभाविक है।
आप अच्छा लिखते है , और आपको लिखते रहना चाहिये।
आप के अन्य चिठ्ठाकारो से जो भी वैचारिक मतभेद आप उन्हे अपने चिठ्ठे पर व्यक्त किजिये। लेकिन लिखना बंद मत किजिये।
आशीष
Sooner the better Mr. Nahar. You lacked general manners in writing.
अरे भइये ये गजब काहे ?हमें अपराध-बोध में काहे डालते हो? हम तो तुम्हारे लिये तीसरी कविता खोज रहे हैं गुलजार की। जीतू से ब्लागर मीट का किस्सा सुनाने जा रहे हैं। तुम चले जाओगे तो कौन हमारे लेख पढ़ेगा,कौन फरमाइस करेगा? किसी न किसी मैं इस मामले में अपराध बोध के पाले में जाने वाला हूँ कि हमारे फैलाये लफड़े ने एक साफदिल चिट्ठाकार के दिल को चोट पहुँचाने में
कारण मैं बना। यह मेरे लिये बहुत तकलीफ देह होगा। अगर हमें कष्ट से बचाना चाहते हो तो तुरंत अपने अगली टिप्पणी में अपने चिट्ठा लिखना जारी रखने की घोषणा करो अन्यथा हम यही समझेंगे हमको भाई साहब समझने वाला सागर कोई और था। अतुल ने कोई ऐसी बात नहीं लिखी कि बुरी मानी
जाये। हाँ स्वामीजी को यह बात समझनी चाहिये कि औघड़ भाषा का प्रयोग जरूरी नहीं कि हर एक को पसंद आये। हर आदमी तुम्हारा दिल नहीं देखता। जनता यह भी देखती है कि तुम कह क्या ,किस तरह रहे हो?
सागर जी, ऐसा नहीं करें. हिंदी में नियमित चिट्ठा लिखने वाले हैं ही कितने? कुतर्कों का तर्कों से जवाब देते रहें. लिखते रहें. (यदि अमरीका की कमियाँ गिनाने पर भारत को गाली मिलती हो, तो भला हो गाली देने वालों का.)
आपके पिछले पोस्ट पर राकेश जी की एक टिप्पणी में सवाल है कि भारत को अच्छा बताने पर अमरीका में रह रहे प्रवासी क्यों तिलमिलाते हैं...भई जिन्हें बुरा लगे सो लगे हमलोग भारत की लाख बुराइयों के साथ-साथ इसकी कुछ अच्छाइयों की भी चर्चा करते रहेंगे.
अमरीका के भारतीय ब्लॉगरों की एक राय यह है कि चूंकि वे बाहर से देखते हैं इसलिए उन्हें भारत में ज़्यादा दाग दिखता है. ठीक बात है, लेकिन बाहर से मात्र दाग पर ही फ़ोकस करने की भी कोई बाध्यता नहीं होनी चाहिए.
अरे रे रे रे!! ये क्या हुआ भाई लोगों..!!
मैने कईं सुना था कि - लड़ाई लड़ाई माफ़ करो, गांधीजी को याद करो.
और कुछ नी हो तो - फ़िर ये धमकी सुनो -
"खबरदार जो किसी ने हींया से कल्टी की तो, जीतू भीया मेरेको के के गये थे कि सब्का धीयान रक्ना. अगर अब्बी के अब्बी आप सब्ने मांडवली नीं की तो फ़िर देखना, और आने तो जीतू भीया को, वोई सल्टायेंगे आप लोगहोनों की मगजमारी. नीं तो हाँ यार!!"
ओर सागर भीया, आप भी यार, भाई लोगों की बात को कीया दील पे लगा ले रिये हो यार. अरे यार भीया आप तो बस्स जे याद रखो कि - हाथी चले बजार, कुकुर भौके हजार! बस्स. और नी तो कीया.
और उस्से भी बढ कर - बो पिच्चर है ना - प्रीती झिंटा / शारूक वाली अरे वीरजारा- उसका गाना है कि नईं -बस्स वोई गादो -
हम तो भई जैसे हैं वैसे रहेंगे.
चिट्ठाकारी और वो भी हिन्दी में... ये तो वो आग है जो लगाए न लगे और बुझाए न बुझे. आप हमें छोड़ सकेंगे क्या?
सागर जी
हम सब भावात्मक हैं| भावना मे किसी ने कुछ कह दिया तो उसे दिल मे न रखें और इतना बड़ा दण्ड हम सब को न दें| कृप्या लिखना न छोड़ें|
किसी कि आलोचना को इस तरह से भी देखें कि कम से कम लोगों ने आपको नोटिस तो किया| यहां हम हैं कि नोटिस करना तो दूर, एक टिप्पणी के लिये तरस जाते हैं|
अज्ञात जी आप जो भी हों, न केवल आपकी भाषा अशिष्ट है पर आप की टिप्पणी गलत एवं अनुचित है|
नाहर जी आपकि अगली प्रवष्टि का बेसब्रि से इन्तजार रहेगा|
सागर जी,
अन्य सभी के साथ मैं भी अपने स्वर जोड़ता हूँ, किसी की टिप्पणी के वजह से नाराज होने से कैसे काम चलेगा ?
मेरे विचार में समझदारी तो इसी में है कि न प्रशंसा को, न आलोचना को, अधिक महत्व दीजिये. अपने विचारों को इमानदारी से कहना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं, कोई आप से सहमत होगा और कोई असहमत.
दुनिया में कुछ बेवकूफ लोग तो हर जगह होते ही हैं, जो किसी बात से गालियाँ लिखते हैं या अपमान करते हैं, पर ऐसी टिप्पणियाँ आप का नहीं, लिखने वाले का व्यक्तित्व दर्शाती हैं.
किसी की टिप्पणी को दोष देना तो यह कहने जैसा हुआ कि लोग आप की बात को पढ़ कर अपने विचार इमानदारी से न लिखें, बल्कि झूठ मूठ के लिए, आप का दिल रखने के लिए लिखें. क्या आप ऐसा चाहते हैं ?
सुनील
स्वामी दयानन्द को एक बार किसी ने बहुत गालियाँ दीं। स्वामी जी अविचलित रहे। निकट स्थित व्यक्ति ने पूछा कि क्या बात है आपको गुस्सा नहीं आया? आपने प्रतिवाद क्यों नहीं किया? तो उनका जवाब था कि उसने गाली दे तो दी, पर मैंने ली थोड़ी!
आपको डाक लिखी है।
सागर जी,
अभी अभी दफ्तर में कंप्यूटर खोला तो आप के चिट्ठे का झटकेदार शीर्षक पढ़ा। सरसरी तौर पर चिट्ठे और टिप्पणियों पर नज़र डाली तो आधा अधूरा जो मामला समझ में आया उस के आधार पर कह रहा हूँ कि इस तरह की बातों पर कोई अलविदा नहीं कहता। जब हम चिट्ठाकारी की दुनिया में उतरे हैं तो हमें खुल कर मन की बात कहनी है, और दूसरे की बात सुननी है। हमारी बात से कोई आहत हो तो उस को जैसे वाजिब हो, सुलझाना है। अपने चिट्ठे पर गुमनाम टिप्पणियाँ निष्क्रिय कीजिए ताकि जिस में खुल कर कुछ कहने का दम न हो (या हिन्दी न आती हो) वह अपनी तंगनज़री की गली में ही रहे। बाकी, आप संघर्ष करें हम आप के साथ हैं। :-)
सुनील जी की बात खरा सोना है कि “किसी की टिप्पणी को दोष देना तो यह कहने जैसा हुआ कि लोग आप की बात को पढ़ कर अपने विचार इमानदारी से न लिखें, बल्कि झूठ मूठ के लिए”। सागर भाई साहब किसी की कही एक बात कोट कर रहा हूँ बाकी यहाँ पढ़िये फिर अपने फैसलेपर पुनर्विचार कर लिजीये।
There were many Nowhere Men before as well - Nirad C Choudhary and V.S. Naipaul stand out from that crowd. Whatever they wrote Indians never liked , it was too obvious to their taste and too painful as well. Its an ironic and painful fact that Indians in India dont like any Non-resident Indian picking on them, now if its Thomas Friedmann or somebody from Economist then its fine. It gets front page attention and all the desi blogger's attention as well.
ना जाऔ भैया छुड़ा के बहियां कसम तुम्हारी हम रो पड़ेगें,रो पड़ेगें ।
भाई जी, दुखी होकर रसोई पर ताला तो हमें डाल देना चाहिए पिछले कई रोज़ से पकवान पकाए जा रहे है ,पर आप सब सूँघ कर आगे बड़ रहे है हम भी ढीठ है बदल बदल कर बना रहे है आखिर कभी तो कुछ पसंद आएगा और तारीफ करेगें, खैर अपनी छोड़ें औऱ आपकी कहें तो आपके लेखन में तेज़ बुद्धि और ऊँचे ज्ञान की झलक है। कबीर भी कम पढ़े थेऔर उन्होंने काफी आलोचना भी सही थी पर अपनी राह नहीं छोड़ी । ऊपर लिखे अन्य विचारों को पढ़ें और सोचें क्या आप इस परिवार को छोड़ खुश रह पाएंगे ।इसलिए फिर से बोक्सिगं गलबज़ पहनें और शुरू हो जाएं क्योंकि--हमको मिटा सके यह ज़माने में दम नहीं हम से है ज़माना ज़माने से हम नहीं ।
सागर जी,
जैसे फ़िल्म शोले में धर्मेंद्र पानी की टंकी पे चढ गया था "अलविदा गांव वालों" वैसे "अलविदा चिट्ठाजगत" ना करें - नीचे आकर मुझे जरा आराम से बात समझाएं.
मैं आपकी धमकी से शोले की भोली मौसीजी सा दहल गया हूं - "स्वामी, अतुल चक्कीपीसींग!"
आपके रूठ जाने की वजह मुझे स्पष्ट तौर पर समझ में नही आ रही है!
एक बात तो स्पष्ट है की आप पर किसी ने कोई व्यक्तिगत आक्षेप नही किया और ना आपने किसी के बारे में कुछ बुरा कहा. फ़िर ये फ़ैसला क्यों?
क्या आप अमरीका को भारत से बेहतर कहनें पर रूठे?
आपने हमारे(मेरे या अतुल के) विचारों में अपने लिए कहां क्या पढ लिया है जनाब जो ये ब्लागमंडल छोड कर जाने की बात हो रही है - जरा विस्तार से वो पढे हुए हिस्से उद्घृत करेंगे(कट-पेस्ट)?
लगता है चक्कीपीसिंग का ही दौर आयेगा। मनमोहन सिंह सरकार को कोसने का मन हो रहा है जिसने गेँहू का आयात पर प्रतिबँध लगा कर आस्ट्रेलिया से गेँहू आयात शुरू कर दिया। अब कोई भी देशी स्टोर न शक्तिभोग आटा रखता है न नेचरफ्रेश। बस कनाडा में बना मैदे सरीखा गोल्डेन टेंपल झेलना पढ़ रहा है।
नाहर जी इस तरह की बहसों में बात कई बार कहाँ से कहाँ चली जाती है। लोग कुछ का कुछ समझते हैं। और प्रतिक्रियाओं में कड़वाहट बढ़ती जाती है। इन सब को दिल पर ना लें। विचारों मे असहमति ना हो तो फिर बहस काहे की।
सागर भाई, मैं तो मानता हूँ कि सारी ग़लती आपकी है। यह आपकी ग़लती है कि आप ख़ुद को दूसरों से कम आँकते हैं। यह आपकी ग़लती है कि दूसरों की बेतुकी बातों को दिल पर ले लेते हैं। मुझे आपके लेखन और आपकी क्षमताओं में विश्वास है, लेकिन अगर आप ही ऐसा अविश्वास दर्शाएँगे तो मुझ जैसे लोगों का क्या होगा?
अगर आपकी लिखने की इच्छा नहीं है, तो ज़रूर लिखना बन्द कर दें। लेकिन किसी के कहने पर यदि आप ऐसा करते हैं, तो वह स्वयं के प्रति और आपके पाठकों के प्रति सरासर अन्याय होगा।
"गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं"|
क्या ये बात इसी सिंह (नाहर) ने लिखी थी?
मुझे आपके इस चिठ्ठे को छोडने का गम यूं है कि एक तो मैं भी राजस्थानी हूं आपकी तरह, और दूसरा हम दूर देश में बैठे लोग तरस जाते हैं आप जैसे लोगों से हिन्दी मे वार्तालाप करने को। ये तो मेरा स्वार्थ हुआ।
दूसरा, अगर आप सकारात्मक रूप से इस चिठ्ठे से दूर जा रहे हैं, तो मैं ये देखना चाहूंगा कि आप कहीं और, और अधिक ऊर्जा, द्रुढता के साथ कुछ और ऐसा करें, और करके दिखायें कि भारत, भारत क्यूं है। मैं आपके साथ हूं।
"जानी, हम लिखेंगे, ज़रूर लिखेंगे, लेकिन वो सर्वर भी हमारा होगा, वो माओस-कीबोर्ड-कम्प्यूटर भी हमारा होगा और वो शब्द भी हमारे होंगे।"
वन्दे-मातरम।
बस कनाडा में बना मैदे सरीखा गोल्डेन टेंपल झेलना पढ़ रहा है। -
अतुल जी, हमारे कनाडा-गोल्डन-टेंपल आटे का मज़ाक न उडाएँ नहीं तो कनाडा-अमरीका की छिड़ जाएगी। गोल्डन-टेंपल आटा सफेद और पीले थैले में आता है। पीले थैले वाला मैदे सरीखा नहीं है। ;-)
सागर जी क्षमा चाहता हूँ मुझे आपका ये लेख पढ कर हंसी आई, बडी बडी मूंछें और छोटे बच्चों जैसा ये लेख? कहीं आप ने मज़ाक के तौर पर ये सब नहीं लिख दिया?
मैं ऐसे बहुत सारे ब्लॉगर्स को जानता हूँ जो वर्षों से लिखते लिखते टिप्पणियों से नाराज़ होकर आखिर मे अपने ही ब्लॉग पर अलविदा लेख लिख जाते हैं। ये ब्लॉग लिखने की बीमारी ऐसी है कि गुस्सा थनडा होने पर उन ब्लॉगर्स ने दुबारा लिखना शुरू कर दिया।
आप किसी एक बात से नाराज़ होकर ऐसा भयानक कदम नहीं उठा सकते, अपना फैसला बदलें और पलीज़ दुबारा से ब्लॉग लिखना जारी रखें।
एक खास बातः हिन्दी ब्लॉग जग्त के आप पहले ब्लॉगर हैं, मैं पहली बार इतनी बडी टिप्पणी लिखी है, यहां के साईबर सन्टरों मे हिन्दी लिखना बहुत मुशकिल है पर आपके इस लेख पर टिप्पणी लिखना ज़रूरी था।
सागर भाई, हिंदी की सेवा का जो अभियान यहां चल रहा है उसमें आपका सहयोग भी आपेक्षित है। पलायन तो कमजोर लोग करते हैं।
सागर जी, जब इतना कुछ कहा जा चुका है, तो आगे कुछ कहना बेकार ही है, बस आप इतना बताइये, अगली पोस्ट कब ला रहे हैं?
अब जबकि अमर्यादित टिप्पणियों की अनदेखी करने और तथाकथित बहस को विराम देने की आमसहमति बन गई दिख रही है...प्लीज़ आप भी मान जाइए.
पता नहीं मुझे ये अधिकार है या नहीं, फिर भी, मैं आपके साथ हुई किसी भी अभद्रता के लिए हिंदी ब्लॉगजगत की ओर से क्षमा याचना करता हूँ.
दिन में बीसियों दफ़े इस उम्मीद से नारद की ख़बर लेता हूँ कि शायद सागर भाई मान गए हों. कम से कम यह घोषणा तो कर ही दें कि अगला पोस्ट लिखने की सोच रहे हैं.
सागर भाई,
वैसे तो इस रीडर्स डाइजेस्ट और उसके उपरांत हुई बहस पर मैं भी बहुत कुछ लिखना (बोलना) चहता था - आप और अनूप जी की ही विचारधारओं के समानांतर और उसी के पक्ष में कुछेक कटु (एवं मूक) सत्यों के साथ भी, परंतु अत्यंत तीव्र गति से कई विचार प्रकाशित होने लगे और चर्चा के तेज़ बहाव को देखकर मैं भी आलस्यवश मूक पाठक बना रहा, परंतु इस चर्चा के चलते आप (अथवा किसी भी सक्रिय और विचारशील सहयोगी चिठ्ठाकार) का इस प्रकार का निर्णय विवेकसम्मत और किसी के लिये - विशेष रूप से नवजात हिन्दी चिठ्ठा जगत के लिये हितकारी नहीं है, और वाद-विवाद की इस परिणति को देख मुझे टिप्पणी लिखने पर बाध्य होना पड़ा।
यह तो कोई बात नहीं हुई कि किसी भी आलोचना (आभासी या वास्तविक) के कारण आप लिखना छोड़ दें। अव्वल तो मुझे तो नहीं लगता कि, इस प्रकार के वाद-विवाद से कोई चिठ्ठाकार वास्तविक रूप से आपकी आलोचना करना चाहता है अथवा आपको ठेस पहुंचाना चाहता हैं, परंतु यदि आपको कोई ठेस भी लगी हो तब भी चूंकि आप एक सक्रिय और विचारशील चिठ्ठाकार आपका यह उत्तरदायित्व बनता है कि आप अपनी लेखनी (कुंजीपटल) को विराम न दें। इस प्रकार के वाद-विवाद अप्रत्याशित और अनपेक्षित नहीं हैं और सदैव रहेंगें, ये तो स्वतंत्र अभिव्यक्ति और भिन्न विचारधाराओं के परिचायक हैं और चिट्ठा जगत के क्रमिक विकास के द्योतक। ऐसे विचारों को व्यक्तिगत मानना अनुचित है, बस आवश्यकता है तो इसकी कि इन्हें स्वस्थ व द्वेष-रहित रखा जाय और माना जाय।
एक और बात, आपके चिठ्ठे में लिखा गया यह वाक्य -
"एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति आप लोगों की तरह बातों को अच्छे शब्दों में नहीं ढ़ाल सकता"
मुझे क़तई नागवार गुज़रा। और मैं इससे बिल्कुल सहमत नहीं हूं। साधारणत: यह बात सही लगती है, परंतु इसके अनेकानेक अपवाद मिलते हैं। न केवल पुरातन काल में अपितु आज भी। कई बार सीधे-सादे शब्दों मे कही गयी बात भी, अलंकारित भाषा में कही गयी बात से अधिक मर्मस्पर्शी और प्रभावशाली होती है। उदाहरण स्वरूप मुंशी प्रेमचन्द का साहित्य। अब रही अल्प शिक्षित होने की बात - तो शिक्षा और ज्ञान का सम्बन्ध तो है, परंतु पारस्परिक निर्भरता आवश्यक नहीं। इसके भी कई उदाहरण मिलते हैं। अभी कुछ माह पूर्व एक समाचार पत्र में पढ़ा था कि एक रिक्शा चालक अल्प शिक्षित होते हुए भी अच्छी काव्य रचना करता था। एक और उदाहरण - (यह तुलना कदापि नहीं है) - संत कबीर के बारे में तो प्रचलित ही है -
मसि कागज छुयो नहीं, कलम गही नहि हाथ
सो आप अपने को अल्प शिक्षित कहकर, अपने चिठ्ठे के प्रस्तुतीकरण और अपनी योग्यता से नहीं जोड़ सकते।
हम सभी को आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि आप अपने चिठ्ठे और टिप्पणियों के माध्यम से चिठ्ठा-जगत के विकास में अपना सतत सहयोग पूर्ण सक्रियता से प्रदान करेंगे और अपने विचारों को प्रकाशित करते रहेंगे।
ओ मेरे कम पढ़े-लिखे भाई, एक राज आज खोल रहा हुं जो सिर्फ मैं और मेरी सास ही जानती हैं. वह यह हैं कि मैं शायद सागर चन्द नाहर से कम पढ़ा-लिखा हुं. लेकिन मजाल किसी कि जो पढ़ा-लिखा भी आँख से आँख मिला सके. लिखना शुरू करो यार.. अपने लिए नहीं, हिन्दी के लिए.
रही बात राष्ट्र-ध्वज कि तो वर्षो से जब हर नागरीक रोज राष्ट्र-ध्वज नहीं फहरा सकता था, हम आंदोलन (अपने स्तर का) छेड़े हुए थे. राष्ट्र-ध्वज मुझे प्रेरणा देता हैं, आप भी अपने टाइप के लगे इस लिए लिख दिया.
सागर जी
वापस आइये, नहीं तो हम लोग भूख हड़ताल पर जाने वाले हैं\
अभी हम पूरा मसला नही समझ सके है, इसलिये अधूरी कमेन्ट कर रहे हैं।
अमां यार ये क्या माजरा है भाई,
जरा डिटेल मे समझाया जाए। मै थोड़े दिनो के लिए छुट्टी पर क्या चला गया यहाँ तो बहुत पंगे शंगे हो गए।
अमां नाहर भाई, तुमने ना लिखने की घोषणा की तो इत्ती सारी कमेन्ट्स आ गयी, हम भी सोचता हूँ कि एक बार सन्यास की घोषणा कर दूँ।
अब वापस अगली पोस्ट लिखो यार, काहे स्वामी की बातों का बुरा मानते हो, वो मुँहफ़ट जरुर है लेकिन दिल का गलत नही है, हमसे तो गाली गलौच का रिश्ता है उसका। और स्वामी जी, खबरदार! जो हमारे नाहर भाई को कुछ ऐसा वैसा कहा।
बकिया चकाचक!
are sagar ji, bhut ho gya natak yaar.. bas karo ab.. apach ho jayega
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